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सौगात-ए- रमज़ान

आदाब

रमज़ान में एक सौगात नज़्म की  मेरी ओर से सभी खुदा के बन्दों को I उम्मीद है आप सभी को पसंद आएगी !!!

चार मिनार

नज़्म

कुछ लोग नए,कुछ रास्ते पुराने,

कुछ वाकिफ़ सी बातें, कुछ किस्से अनजाने,

कुछ आज की कहानियाँ,  कुछ इतिहास के फ़साने,

मिलते हैं जहाँ, 

अलग अलग होकर भी,

बनती है वहाँ, 

हर रोज़ एक दास्ताँ नई |

दे जाती है जो मीठी यादें, 

 सब कुछ खोकर भी,

और बना जाती हैं, 

 कच्चे पक्के रिश्ते कई |

इसी एहसास को जीने चली मैं,

ढूंढ़ने वो अनछुए जज़्बात, 

 पुराने शहर की हर गली में,

रमज़ान का पाक महीना था,

सेहरी से इफ्तार तक की दूरी, 

 को हर रोज़ जीना था,

मगर चमक थी वहाँ हर एक इंसान में,

सुलगती धूप में प्यासे गले के मान में,

गुलज़ार हौज़ के चारो ओर,

सजी थी ईमानदारी की एक डोर, 

इत्र से कम, 

 इबादत के जज़्बे से ज़्यादा,

महक उठी थी सब गालियाँ,  

खुदा के बन्दों का था जो नेक इरादा|

देख ये नज़ारा चहक उठा बेजान सा चारमिनार,

रोशन हो उठी बुझी बुझी सी उसकी हर मिनार, 

जैसे खुदा ने बेशुमार रेहमत बरसाई हो,

बुला रहा अपनी ओर इस कदर हर इंसान को,

इसी उम्मीद  में की आज, 

 किसी भी दिल में ना कसक हो ना कोई तनहाई  हो,

दुआ करते हुए रब से, 

की मोहब्बत भरे हर रूह में,  

ना कोई छल हो ना बुराई हो|

आओ सब मिलके आज जश्न मनायें,

जो चेहरे पे मुस्कुराहट ले आए, 

 ऐसे मधुर गीत गुनगुनाएँ,

ईद तो एक ही दिन आती है,

मगर मुबारक तो हर दिन हो सकता है,

इस पैगाम को हर दिल तक पहुंचाएं,

आओ मिलकर रमज़ान मनाएँ |

नज़्म

खुदा: सूफ़ी: इबादत

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