उसूल ज़रूरी हैँ या जज़्बात? इसी कश्मक़श को ज़ाहिर करने की कोशिश की है एक नज़्म से |
वक़्त,
वक़्त,
एक कलम की तरह,
ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर,
लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने,
लेकिन,
कुछ आसान सा नहीं नज़र आता,
इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़,
कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं,
जज़्बातों की ये लकीरें भी,
क्योंकि रुख बदल देती है उनका,
ये नबीना असूलों की हवा,
और तब्दील कर देती हैं,
हयात इस पाक इश्क़ की |
बस कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं,
और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ भी |
मगर फिर भी,
ये झिलमिल आँखें बयाँ कर जाती हैं,
दर्द-ए-दिल की उस कसक को भी,
जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे ना लिख पाए कभी |
वक़्त : उसूल : जज़्बात