Shayari, Souful, Sufi

शायरी – कसक

कई मर्तबा इन्सान खुद में इतना मशरूफ हो जाता है, की औरों की परेशानियों से वाकिफ़ भी नहीं हो पाता | वक़्त यूँही गुज़रता रहता है, ज़िंदगी यूँही ख़त्म हो जाती है | एक सुनापन सा महसूस होता है भीड़ में भी |हम कितना भी चीखलें या ज़ोर ज़ोर से अपनी पीड़ा को बयाँ करने की कोशिश करें, खुद में मशरूफ़, सिर्फ़ खुद के लिए जीने वाला इन्सान कभी उन्हें नहीं सुन पाता | तब ये चाँद सितारे ही सिर्फ़ अपने लगते हैँ | उनसे अपने ज़ख्म-ए-दिल की दास्तान एक हल्की सी गुफ़्तगू में भी आराम से कह पाते हैँ |

शायरी : कसक : गुफ़्तगू

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