inspiration, stories

कॉंच

कॉंच

रेत सी फ़िसलती ज़िंदगी,
तपती पिघलती वक़्त की आतिष में,
बन जाती है सूरत कॉंच की,
खनकती चमकती है हयात उसकी,
लेकिन ज़रा सी ग़म की आंधी बिखेर देती ह,
तब्दील कर देती है शक्शियत उसकी,
वक़्त की ये ही ख़ासियत है शायद,हस्ती बनाती भी है और मिटाती भी।

        इस देश के और शहरों की तरह ही है ये शहर भी |उत्तरप्रदेश के दक्षिणी पश्चिम में, दिल्ली से 4 घंटे की दूरी पर स्तिथ है फ़िरोज़ाबाद | इसे सुहाग नगरी के नाम से भी जाना जाता है | देशभर में विभ्भिन रंगों की कॉंच की चूड़ियाँ यहीं से बन कर जाती हैं | हर भारतीय नारी के सुहाग की निशानी और श्रृंगार का अभिन्नरूप है ये कॉंच की चूड़ियाँ | मगर, जहाँ ये किसी के सौंदर्य को निखारती और चमकाती हैं,वहीँ दूसरी ओर किसी की ज़िंदगी को उजाड़ती और बुझाती हैं | भारत की आबादी और गरीबी से हर शख्स वाक़िफ़ है | दो जून की रोटी के लिए हर रोज़ ज़िंदगी को दाँव पे लगाना पड़ता  है।


      ऐसी ही ज़िंदगी गुज़ार रहा था असीम , 12 साल का एक लड़का जो अपनी विधवा माँ के साथ फ़िरोज़ाबाद की एक कॉंच की चूड़ी बनाने वालेकारखाने में काम करता था | तंग गलियाँ , ना धूप ना हवा, बस धुआँ ही धुआँ , ये ही थी उस जगह की कड़वी हक़ीक़त | असीम रोज़ सवेरे नमाज़ अदा करके और मदरसे में तालीम हासिल करके कारखाने में 8 घंटे की मज़दूर करता था | माथे पे शिकन, हाथों में चोट के घाव,पैरों में बवाईयाँ, कपड़ों पर सूत की चादर, ये ही उसकी पहचान बन गई थी | यूँ ही दिन गुज़रते गए, और अकेली माँ का साथ भी कुछ दिन का ही था | पिता के गुज़र जाने और बहन के खो जाने के बाद , उसकी ज़िंदगी में बस एक माँ ही थी |

कारखाने के काम से ज़्यादा असीम का रुझान धीरे धीरे शायरी और नज़्मों में होने लगा | मदरसे के उलेमा ने इस हुनर को पहचाना, और रोज़ाना उसे कुछ लिखने को देते |दूसरे दिन उसे सुनते और सुधारते | असीम भी बड़ी ईमानदारी और उत्साह से, काम के बाद रोज़ , तालाब के किनारे बैठके, कुछ ना कुछ लिखने लगा | बस ये ही एक ख़ुशी थी उसकी ज़िंदगी में | कभी कभी काम पर ना जाकर, उलेमा की दी हुई किताबों को पढ़ता रहता दिन भर | बाकी बच्चे तो काम के बाद खेलते, या हुल्लड़ मस्ती करते, मगर वो सिर्फ पढ़ता,लिखता या सोचता | अनपढ़ माँ कभी नहीं समझ पाती थी उसका ये शौक, और फटकारते हुए कहती उससे,“साहुकार ने आज रोज़ी काट ली, अब हम खाएँगे क्या, ये नज़्म ” | तो उस पर असीम जवाब देता, ” हाँ माँ! ये नज़्म ही ज़रिया बनेगी हमारी भूक मिटाने की ” | माँ माथा पीटते हुए वहाँ से चली जाती | और असीम अपनी नज़्मों की ख़ुशनुमा दुनिया में खो जाता |

मगर तकदीर को कुछ और ही मंज़ूर था | एक दिन उसकी माँ की हालत बहुत खराब हो गई | सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया तो पता चला की टी. बी. है | बचने की गुंजाइश काफ़ी कम थी | उसने निजी दवाख़ाने में दस्तक दी, मगर सबने भगा दिया ये कह कर की बिना पैसे जमा किए इलाज नहीं हो सकता | असीम यूँ ही माँ को लेकर दर दर भटकता रहा कई दिन, एक टूटे से ठेले पर | एक दिन अस्पताल के रास्ते जाते हुए ही ही माँ ने दम तोड़ दिया, और इस दुनिया से रुक्सत हो गई | असीम टूट गया और आसमान की ओर देखकर सोचने लगा –

गरीबी और बीमारी बड़ी वफ़ा निभाते हैं,
ख़फ़ा तो ज़िंदगी ही लगती है,
जब रहती है तब भी,
और जब नहीं रहती तब भी |

         असीम ने कारखाने का काम छोड़ दिया,और दरगाह के बाहर फूलों की चादर बनाने का काम करने लगा | खाना खैरात में जो नहीं खाना था उसे | मगर पढ़ाई ज़ारी रही और वक़्त के साथ मेहनत रंग लाई | असीम को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उर्दू की तालीम लेने के लिए दाखिला मिल गया, वो भी सरकारी खर्चे पर | ज़िंदगी अब बदलने वाली थी |

वाहद हुसैन नाम के एक प्रोफेसर ने असीम के हुनर को पहचाना और उसे किताब लिखने को कहा | साथ ही उसे किताब से संबंधित हर प्रकार की मदद का भी आश्वासन दिया | असीम की किताब छपी और रात -ओ -रात बिक भी गई | और भी एडिशन्स छपे, नए संपादकों नेअसीम को एक से बढ़कर एक ऑफर दिए | असीम की प्रसिद्धि देश भर में बढ़ने लगी और वो मुशायरों और कवि सम्मेलनों में जाने लगा | रेडियो और अख़बार में भी उसके इंटरव्यू आने लगे |

विद्यार्थियों और नए लेखकों के लिए असीम रोल मॉडल बन गए थे | कई साल बीत गए, असीम ने अपनी कॉलेज की साथी रुकसाना से निकाह कर लिया | असीम बड़ी ही खुशहाल ज़िंदगी बिता रहा था | मगर एक दिन, वो मस्जिद से नमाज़ अदा करने के बाद अपने बच्चों के साथ घर लौटते वक़्त कुछ देखकर विचलित हो उठा | उसे अपना बचपन याद आ गया जिसे वो कब का पीछे छोड़  चूका था |


       वो सारी रात सो ना सका | उसने सुबह ही फ़िरोज़ाबाद की ट्रेन पकड़ी और उसी जगह गया जहाँ वो बचपन में रहा करता था | आज भी इतने सालों बाद कारखाने में बच्चों की हालत देख कर वो अंदर से फिर टूट सा गया | उसने एक एन.जी. ओ. खोलने की ठानी जहाँ ऐसे बच्चों को आसरा दिया जाएगा | और उनके माँ बाप का दवाख़ाने में मुफ़्त इलाज़ किया जाएगा | एन. जी. ओ. का नाम रखा गया – “शमशाद आसरा “ और “नर्गिस दवाखाना”, अपनी माँ और बहन के नाम पर |

  असीम की प्रसिद्धि की वजह से और लोग जुड़ते गए और कई बच्चों का जीवन सुधरता गया | मीडिया ने असीम के इस नेक काम को खूब सराहा | सरकार ने भी सहायता दी इस मुहिम को आगे बढ़ाने में | मगर आज भी असीम जैसे लाखों बच्चे रोज़ कहीं ना कहीं किसी ना किसी जगह बाल मज़दूरी करते हुए अपना बचपन और ज़िंदगी खो रहे हैं, और कम उम्र में अपने माँ बाप को भी | हमें और असीम चाहिए , क्या आपके अंदर है कोई असीम ?  

आज असीम एन. जी. ओ. के बाहर खड़े होकर, अपनी माँ और अपने बचपन को याद करके , अपने बीवी बच्चों से सब बयान करते हुए कुछ यूँ गदगद हो जाता है –

कॉंच सी ही तो है ये ज़िंदगी,
मगर इसे संभालना होगा,
वक़्त और तक़दीर की आंधी से,
तुम और मैं की रंजिश में,
हम का वजूद नहीं रहता |
आओ, हम का वजूद बनाएँ,
ज़िंदगी से ज़िंदगी बनाएँ |

कॉंच : ज़िन्दगी : सीख

https://anchor.fm/tulipbrook/episodes/ep-e12dalt

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s