सार्थक है हर जीवन, सार्थक है हर रूप |

पत्थर की चट्टाने खड़ी थी,
सदियों से अडिग और स्थिर,
वहाँ पहुँचा एक कारीगर,
लेके अपने पैने नोकीले औज़ार,
और
आया उसे एक विचार,
कि मैं तराशु इन पत्थरों को,
तोड़कर इस चट्टान का आकार |
फिर टुकड़े टुकड़े हुए कई,
लगा जैसे तबाही मची हो कोई,
मगर हर टुकड़ा नायाब था,
बनने को तैयार एक रूप,
कोई बना हँस तो कोई सिँह,
कोई बना कछुआ तो कोई सर्प,
कुछ लम्बे टुकड़े ने स्तम्भ का रूप लिया,
जो जुड़कर बने एक धरोहर,
एक अनूठे इतिहास की,
जो लिखा गया पत्थरों में,
और जिया अरसों तक,
कुछ टुकड़े अनोखे थे,
उन्होंने लिया दिव्य स्वरुप,
और बन गए मूरत भगवान की,
कुछ टुकड़ों ने खुद को टूटा पाया,
व्यर्थ लगने लगा उनको उनका अस्तित्व,
उनका बना ना कोई भी आकार,
वो तब्दील किए गए कणों में,
और उन बने हुए रूपों की दरारों के मरहम बनें,
ऐसे साकार हुआ उनका जीवन,
हर कण का,
हर टुकड़े का,
हर चट्टान का,
और
हर कारीगर का भी |
पत्थर : कारीगर : दर्शन