काल के ना जाने कौन से क्षण में, ये प्रक्रिया आरम्भ हुई- चिदाकाश के दायरे ओझल होने लगे, रिक्त होने लगा स्मृतियों का पात्र, रिसने लगे उसमें से भावों के रंग, घुलने लगे वो यूँ हौले हौले, महाकाश की अपरिमितता में, किसी अज्ञात विशाल कुंड में | ये ही यात्रा है, आत्मान के ब्रह्मन् से युति की | ये ही यात्रा है, मोक्ष की |
तरु के देह पर, ये अनगिनत व्रण, और छोटी बड़ी गाँठेँ, उजागर करती हैं, एक लम्बी कहानी, अस्तित्व की | हर एक ग्रंथि, बयान करती हैं, इसके संघर्ष की दास्तान | ना जाने कितने मौसम देखे, ना जाने कितने पल जिए, अगर अवलोकन करें, धैर्य के साथ, इसके हर सूक्ष्म भाग का, तो नज़र आएगी स्पष्ट रूप में, हर एक अनुभूति, इसके जराजीर्ण वजूद की |
एक सुर्ख सिंदूरी एहसास लिए है ये रैना, जैसे अतीत की स्थिर स्मृतियाँ, अस्थायी सा जंग लिए हो कोई, और वर्तमान के ये गतिशील जज़्बात, पुलकित भाव उजागर कर रहें हो भीतर |
जैसे जैसे मेरी सतह निस्तेज होती गई, आतंरिक चुभती विषकत्ता को हटाती हुई, वैसे वैसे वो प्रकट करती गई, एक परत कोमल निश्चयात्मकता की | ये भंजन ही वास्तविक उन्मुक्ति है, ‘अहम्’ की, इस प्रतिबंधित जीवन की बेड़ियों से |
ये अवखंडन अब एक आनंदमयी अनुभव होने लगता है, और पुर्ज़ा पुर्ज़ा यूँ बिखरना, स्वीकृति भाव को उत्पन्न करता है, जो ‘अहम्’ को सूत्र के उद्गम में, विलीन होने के लिए, प्रोत्साहित करता रहता है |
मगर कालचक्र का ये प्रभाव, ‘अहम्’ को दोबारा समावेश में लेता है, भौतिकता को अनुभव करने के लिए, पुनः किसी काल में जन्म लेने के लिए, किसी और रूप और नाम के साथ, एक नूतन अस्तित्व में, जो फिर से बाँध देगा, इस जीवन को, एक सीमित अवधि के लिए, भौतिकता के जटिल पंक में |
मगर हर बार ‘अहम्’ पहुँचेगा इस दायरे के सिरे पर, अभिज्ञता के आयाम से दूर होकर, एक अज्ञात मक़ाम में प्रवेश करके, जो इस भौतिक अवधारणा के परे होगा, पुनः वही सुर्ख सिंदूरी एहसास दिलाता हुआ, जैसे इस रात्रि में हुआ है |
कलयुग की सच्चाई – अर्थ एवं काम पुरुषार्थ में मग्न मनुष्य जाति, धर्म पुरुषार्थ का तिरस्कार करती हुई, अपने अंतिम लक्ष्य – मोक्ष पुरुषार्थ को अज्ञानता के माया जाल में भ्रमित होकर, संपूर्णतः भूलती हुई, अपने ही पतन की तैयारी कर रही है | ये केवल किसी आध्यात्मिक प्रवचन का विषय नहीं है, ये मनुष्य जति के अस्तित्व का, उसकी चेतना का विषय है | ज्योतिष की दृष्टि से – तकनीकी भ्रम की माया का समय है | राहु छाया गृह का प्रचंड प्रभाव है, जो कभी ना मिटने वाली लालसा, और असीमित अंधकार में सब कुछ निगलने वाली प्रवृत्ति को प्रबल करता जा रहा है |
अगर अब भी धर्म को धारण नहीं किया, तो मनुष्य जति का सर्वनाश होगा |
ये अश्रुधारा कोई आगंतुक नहीं, निवासी है इस ह्रदय द्वीप की, इसका आगमन नहीं हुआ कभी, ये आरम्भ से है विभव लिए, एक सैलाब के अस्तित्व का, मगर स्थिर रहती है फिर भी, प्राण वेग को उत्प्लाव देती हुई, ठहराव की सुगम प्रबल स्तिथि से, रिसाव की विश्रृंखल दुर्बल अवस्था में, तब ही आती है ये, जब होता है एक निर्दयी आघात, इसके धैर्य पर, इसकी स्तिरथा पर, इसकी निशब्द आभा पर, इसकी रहस्यमयी छवि पर, इसके सम्पूर्ण अस्तित्व पर | और फिर होता है ऐसा आडम्बर, एक आवेग पूर्ण दृश्य का मंज़र, जो पहले सब धुंधला कर जाता है, और फिर क्षणिक अनुभूति सा, ओझल हो जाता है, किसी गहरे तल पर, जो अंतर्मन की दृष्टि के, एक सूक्ष्म स्मृति सा, उसके ही अंक में, यूँ समा जाता है, अस्मिता का अभिन्न अंशलेख बनकर | कर्म और काल के दायरे में, इस कदर बद्ध होकर, भौतिक तृष्णानाओं के व्यूह में, फिर एक दास्तान बनाने, फिर आघात से विक्षुब्ध होकर, फिर रिसाव की प्रक्रिया को, उन्ही चरणों से ले जाकर, अवगत कराना उसका स्थान, अस्मिता में |
ना जाने कितने ही चेहरे, ना जाने कितनी ही पहचान हैं, इस दुनिया के रंगमंच पर, ना जाने हर किरदार, पहनता है कितने ही मुखौटे | कभी मुखौटा लहराती ख़ुशी का, भीतर अपने ग़म का सागर लिए, कभी मुखौटा ग़म के बादल का, बिन अश्कों की बारिश लिए, उसी मुखौटे से – किसीके सामने हँसता है, किसीके सामने रोता है, किसीसे मुँह फेरता है, किसीकी ओर ताँकता है, कभी आक्रोश में भी ख़ामोशी लिए, कभी प्रेम में अविरल बोलता हुआ, कभी निराशा में कोरे लब लिए, कभी उम्मीद में जगमगाती मुस्कान लिए | हर इंसान पहनता मुखौटे हज़ार, कुछ बदलते हैं पल पल, तो कुछ उम्र भर भी नहीं, कुछ अपनों के लिए, तो कुछ होते गैरों के लिए, कुछ सिर्फ़ एक सच के लिए, तो कुछ हर तरह के झूठ के लिए |
एक अस्तित्व था, जिसका आकार भी, रूप भी, छवि भी, औचित्य भी, जो काल बध्य होकर, पूर्ण था, मगर क्षण क्षण घटता गया, उसका आकार, उसका रूप भी, उसकी छवि, उसका औचित्य भी, और आज जो प्रत्यक्ष है, वो सिर्फ़ अवशेष हैं, अधूरी कहानी से, किसीके इतिहास के, जो सिर्फ़ तर्क वितर्क, और अनुमान के दायरे में, सीमित रहकर, एक शोध का विषय बन जाएँगे, मगर क्या कभी भी, इस अवशेष का, सत्य हम जान पाएँगे?