वेदना की आवृत्ति जब जब उजागर होती गई,
तब तब एक गूढ़ शक्ति उसे तिरोहित करती गई,
मानो जैसे इस अपरिमय अनन्त के,
अस्तित्वहीन सिरों से मुद्रित होती गई,
निदोल सा ये जीवन होता गया,
ह्रदय जितना इसका अवशोषण करता गया,
अभिव्यक्ति उतनी ही तीव्र होती गई,
दोनों में द्वन्द्व बढ़ता ही गया,
और यूँही वेदना की आवृत्ति,
अनुनादि स्तर पर पहुँचती गई,
एक देहरी जहाँ पर आकर,
चयन करना अनिवार्य होता गया,
यहाँ –
आवेग के क्षण क्षीण होते गए,
रिक्त अवस्था सा वक़्त कोंपल होता गया,
तिमिर और दीप्त संयुक्त होते गए,
स्त्रोत और गंतव्य विलीन होते गए |
