दर्शन, inspiration, philosophy

संगीत

संगीत

क्षण क्षण में संगीत,
कण कण में संगीत,
हर श्वास में संगीत,
हर आभास में संगीत |

सागर के ठहराव में,
नदी के बहाव में,
झरनों की हुंकार में,
वृष्टि की बौछार में,
नीर के हर रूप में,
हर बूँद में है संगीत |

मरुस्थल के अनुर्वर में,
घासस्थल के उर्वर में,
भूमि की हर माटी में,
चट्टानों में,घाटी में,
है संगीत |

बयार की अनवरत गति में,
बवंडर की क्षणिक यति में,
अनिल की हर रफ़्तार में,
है संगीत |

एक लौ के सौहार्द में,
एक ज्वाला के संताप में,
सूर्य में,
इंदु में,
अनन्त के अज्ञात सिरों में,
ब्रह्माण्ड के केंद्र बिन्दु में,
है संगीत |

प्रदीप्ति

Soulful

सिन्दूर

Source : Aakash Veer Singh Photography

बेला मिलन की आ गई,

रुत सुहानी सी छा गई,

श्रृंगार करुँगी आज मैं,

मीत से मिलूँगी आज मैं,

रेन की गहरी काली स्याही से,

नैनों का काजल बनाऊँगी मैं,

सूर्यास्त की चमकती लालिमा से,

फीके होठों में रंग लाऊँगी मैं,

सावन के तृप्त पत्तों से,

हरी हरी चूड़ियाँ बनाऊँगी मैं,

आसमान में दमकते सितारों से,

ये ओढ़नी सजाऊँगी मैं,

गुलाब के मेहकते रस से,

इस देह को सुगन्धित बनाऊँगी मैं,

मोगरे की कच्ची कलियों से,

केशों का गजरा बनाऊँगी मैं,

मेहंदी के ताज़े पत्तों को,

इन हथेलियों को रचाऊँगी मैं,

चाँद के निरर्भ नूर से,

पैरों की पैनजनिया बनाऊँगी मैं,

जल की सुनहरी तरंग से,

नसीका का छल्ला बनाऊँगी मैं,

तपती कनक सी इस भूमि से,

कान के झुमके बनाऊँगी मैं,

काली घटा के सिरे की रोशनी से,

मांग का लशकारा बनाऊँगी मैं,

फिर बैठुँगी समक्ष इस अग्नि के,

प्रीत की लौ जलाऊँगी मैं |

मगर ये श्रृंगार अधूरा है,

इस पूर्ण कैसे बनाऊँगी मैं?

अब बारी है मीत की,

इस श्रृंगार पूर्ण बनाने की,

परिणय के प्रतिक को,

मेरी कोरी मांग में सजाने की |
ह्रदय के रक्त सा ये सिन्दूर,

जब भरेगा मीत इस मांग में,

हया से पलके झुकाऊँगी मैं |

फिर कहेगा ये मन तुमसे –

“जीकर इस कुमकुम भाग्य को,

तुम्हारी संगिनी कहलाऊँगी मैं |”

सिन्दूर : परिणय : संगिनी