
जब सागर सा गहरा ये दर्द,
भीतर रहता हो अदृश्य,
घुटता हुआ हर स्वाश में,
रुकता ठहरता मगर फिर भी अस्थिर सा,
बेचैन और सा बहने के लिए,
करता इंतज़ार सदियों तक,
थोड़ा थोड़ा यूँ खिसकता,
जैसे चलना भी गुनाह हो कोई,
इस कदर बढ़ती रहती उसकी कसक,
प्रबल और प्रचण्ड बन जाती,
वक़्त के साथ |
जब मिलता अवसर,
एक लम्बे अंतराल के बाद,
वो बहती नहीं अब,
बस फूट जाती,
किसी तूफ़ान की तरह |
उसे कर पाता नियंत्रित,
सिर्फ़ आलिंगन,
कोमल स्पर्श और सौहार्द भरा,
फिर बह पाता ये दर्द,
अश्कों की धारा में,
उस वक़्त तक,
जहाँ सुकून भर जाए फिर से,
हर स्वाश में |
आलिंगन : अश्क़ : दर्द