दर्शन, philosophy, poetry, Soulful

प्रियतम और भोजन

पत्थर की पटिया साफ़ पड़ी है,
बर्तन भी सारे धुल गए,
भोजन का वक़्त हो गया,
सबके आने का वक़्त हो गया,
चलो तैयारी करलूँ –
” चार मुट्ठी चावल निकाल लूँ,
और भिगाकर रख दो उन्हें,
तब तक ज़रा खेत से,
पालक के कुछ पत्ते तोड़ लूँ,
इमामदस्ते में कूट लूँ ज़रा,
खड़े मसाले सारे,
लाल मिर्च थोड़ी ज़्यादा डाल देती हूँ ,
इन्हें तीखा जो पसंद है,
लहसुन की दो डली काफ़ी है,
अरे! अदरक तो बाज़ार से लाना भूल गई,
चलो कोई बात नहीं,
अदरक का अचार मर्तबान में रखा है,
उसी को इस्तमाल करुँगी,
पालक को धोकर काट लेती हूँ,
हांडी में चावल चढ़ा देती हूँ,
तेल भी अब गरम हो गया,
जीरे लहसुन का तड़का लगा लूँ,
पालक भी अब भुन कर पक गया,
इनमें पके चावल मिला दूँ,
ढँक के दम देती हूँ इन्हें,
तब तक साड़ी की इन सिल्वटों,
और इन उलझी लटों को सुधार लूँ,
आईने में देखलूँ खुदको ज़रा,
कुमकुम सुरमा फिर से लगा लूँ,
एक हरी चूड़ी टूट गयी थी,
उलझकर खेत के काँटों में,
दूसरी चूड़ी पहन लेती हूँ |
शिखर के मंदिर की आरती अब समाप्त हुई,
फेरलीवाले भी अब वापस जाने लगे,
लगता है इनके आने का वक़्त हो चुका |
आँगन में बैठ जाती हूँ कुछ देर,
जूड़ा अधूरा सा लग रहा है,
जूही के इन फूलों का गजरा बना लूँ |
पालक भात की खुसबू के साथ,
गजरे की महक भी घर में फैला दूँ,
ये दिया जो चौखट पे जल रहा है,
तेल कम लग रहा है इसमें,
थोड़ा सा इसमें तेल डाल लूँ,
उफ़! ये बिखरे पत्ते नीम के,
इन्हें भी ज़रा साफ़ कर लूँ,
आते ही होंगे ये,
ज़रा आईने में खुदको फिर से निहार लूँ,
थाली लुटिया सब रख दी,
मुखवास की डिबिया भी,
बस इनकी राह देख़ रही हूँ,
आज इतनी देर क्यूँ हो गई?
बैठ जाती हूँ फिर से आँगन में,
पूनम के चाँदनी में धुला ये आँगन,
हल्की ठंडी पुर्वा का ये स्पर्श,
उफ़! कब आएँगे ये घर,
आज इतनी देर क्यूँ हो गई?”

विवाह : प्रेम : समर्पण

inspiration, philosophy, poetry

अपनी ज़मीन से जुड़ना

जब पहुँची अपने गाँव, तब जाना अपने अस्तित्व को, बड़े ही क़रीब से | और बैठी हुई मैं, घर के इस आँगन में, सोचती रही कुछ यूँ |

आँगन

ये आँगन टूटा फूटा सा,
और ये धरातल की दरारें, बयाँ करती हैँ दास्तान,
कुछ पुरानी यादों की, ग्लानि और अभाव से पूर्ण,
ये दीवारों के उतरता रंग,
एक व्याख्या प्रकट करते हैँ,
अधूरी ख्वाहिशें के, बिखरने की,
उलझे रिश्तों के, जकड़ने की,
कुछ खामोशियों की, कुछ सिसकियों की,
जो आज भी सुनाई देती हैँ,
ये ही आभा है, अतीत की, जो प्रत्यक्ष है, मगर समीप नहीं|
है नेत्र की सीमा से परे, मगर जाती हैँ, अंतर्मन के दायरे की ओर,
और छू जाती हैँ, उस सूक्ष्म कण को,
जो ओझल सा था, मगर असीम सा, अस्तित्व लिए हुए,
अतीत का, वर्तमान में, भविष्य तक |

ज़मीन : आँगन : अस्तित्व