इतिहास ये – गेरुआ सा, धुँधला सा, घटता हुआ | ईमारतें टूटी फूटी सी, दीवारें भी दरारों भरी, धरोहर फिर भी मज़बूत, स्तम्भ ये अडिग खड़े हुए \ पत्थरों पर जमी वक़्त की काई, ज़मीन पर पनपती प्रकृति, ये संतुलित सा आकार, ना अब तक बंजर हुआ, ना ही बसेरा बना | प्रदीप्ति
एक अस्तित्व था, जिसका आकार भी, रूप भी, छवि भी, औचित्य भी, जो काल बध्य होकर, पूर्ण था, मगर क्षण क्षण घटता गया, उसका आकार, उसका रूप भी, उसकी छवि, उसका औचित्य भी, और आज जो प्रत्यक्ष है, वो सिर्फ़ अवशेष हैं, अधूरी कहानी से, किसीके इतिहास के, जो सिर्फ़ तर्क वितर्क, और अनुमान के दायरे में, सीमित रहकर, एक शोध का विषय बन जाएँगे, मगर क्या कभी भी, इस अवशेष का, सत्य हम जान पाएँगे?
ठहरे से इस पल में, सदियों का प्रवाह शामिल है, सूने से इस परिवेश में भी, विगत हलचल ओझल है, टूटी सी इन दरारों में से, बुरादे की तरह झड़ते हैं, कई दस्ताँनें पुरानी, परत दर परत ये ज़मीन, छुपाए हुए है राज़ कई, जहाँ आज हम खड़े हैं, वहाँ कल दौड़ा होगा, इस ख़ामोश प्रांगण में, गूँज है बीते ज़माने की, इतिहास नज़र आ ही जाता है, महसूस हो जाती है भूतकाल भी, बस ज़रूरत है ठहरने की, कुछ देर सब कुछ भुलाकर, उस तथ्य को ठहरे से इस पल में, सदियों का प्रवाह शामिल है, सूने से इस परिवेश में भी, विगत हलचल ओझल है, टूटी सी इन दरारों में से, बुरादे की तरह झड़ते हैं, कई दस्ताँनें पुरानी, परत दर परत ये ज़मीन, छुपाए हुए है राज़ कई, जहाँ आज हम खड़े हैं, वहाँ कल दौड़ा होगा, इस ख़ामोश प्रांगण में, गूँज है बीते ज़माने की, इतिहास नज़र आ ही जाता है, महसूस हो जाती है भूतकाल भी, बस ज़रूरत है ठहरने की, कुछ देर सब कुछ भुलाकर, उस तथ्य का बोध करने की, जो गुप्त ही रह जाता है, उन लोगों के लिए, जो सदैव वक़्त के प्रतिकूल, यूँही भागते रहते हैं, ना ही पल जीते हैं, ना ही स्मृतियाँ बनाते हैं |
पत्थर में उतकीर्ण कहानियाँ, और तरशे हुए ये स्तम्भ, भिन्न भिन्न आकार की ये कड़ियाँ, जैसे प्रणाली हो जीवन शैली की, घटित हुई हो जो, भूत काल में, ले जाती है हमें, उस वक़्त में, और बतलाती है मौन होकर भी, दास्तान – सभ्यता की, संस्कृति की, धर्म की, कर्म की, सत्य की, मिथ्या की, विजय की, पराजय की, व्यक्ति की, समाज की, उत्थान की, पतन की, उल्हास की, ग्लानि की, काल चक्र के सार की, जो परिवर्तनशील होकर भी, दोहराता है वही क्रम, अलग अलग कहानियों के रूप में |