Soulful, Sufi

दूरी – नज़दीकी

वो

फ़लक –
जो कभी हासिल ना हो सका,
मगर ख्वाहिशों की फ़ेहरिस्त में,
सबसे आगे रहा हमेशा |

और ये ज़मीन –
जो हमेशा हमारी ही रही,
मगर हमारे साथ के लिए,
रज़ा मंदी का इंतज़ार करती रही |

इंसान को हमेशा,
कद्र और फ़िक्र,
नाक़ाबिल – ए – रसाई तोर प्यार की ही होती है |

Shayari, Souful

शायराना सी ये शाम

कभी कभी ऐसा महसूस होता है की इबादत और दुआ में कुछ कमी रह गई, जो ये मोहब्बत नसीब ना हुई | फिर लगता है कि शायद मोहब्बत का मुक़ाम हर कोई पा सकता | खैर कोई बात नहीं, मुक़ाम ना सही, सफ़र तो तय कर ही सकते हैँ |

मोहब्बत : मुक़ाम : सफ़र

inspiration, poetry, Souful

महताब

हर दिल की आरज़ू, हर मन की ज़ुस्तज़ू, है मोहब्बत | महताब जगाता है ये हर रात |

महताब

रात : मोहब्बत : जज़्बात

poetry

ये चाँदनी – एक नज़्म

नूर की ख़्वाहिश किसे नहीं होती | हमें भी है – एक नज़्म इसी ख़्वाहिश के नाम |


उधर नूर उस मेहताब का, 

छुपाता बदली का ये नक़ाब, 

इधर दीदार की तलबगारी में, 

रश्क़ करता ये मन,

 नज़रों में ही बुन लेता ख़्वाब, 

इसी चाह में, 

कि मिल जाए  कुछ राहत, 

इस दिल-ए-बेकरारी को |
“कुछ सुकून तुम रख लो, 

कुछ हमें बक्श दो, “

कहता हुआ ये मन, 

दम भरता धीमें धीमें, 

जब झिलमिल आँखें मूँद लेता, 

तभी फ़िज़ा की एक शरारत, 

मुकम्मल कर देती उस ख़्वाहिश को |

और, 

उस माहेरु की एक झलक पाकर,  

ये महदूद भी बेशुमार हो जाता |

©प्रदीप्ति 

नूर: माहेरु: ख़्वाहिश

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मरासिम

उसूल ज़रूरी हैँ या जज़्बात? इसी कश्मक़श को ज़ाहिर करने की कोशिश की है एक नज़्म से |


वक़्त,

वक़्त,
एक कलम की तरह,

ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर,

लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने,

लेकिन,

कुछ आसान सा नहीं नज़र आता,

इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़,

कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं,

जज़्बातों की ये लकीरें भी, 

क्योंकि रुख बदल देती है उनका,

ये नबीना असूलों की हवा,

और तब्दील कर देती हैं, 

हयात इस पाक इश्क़ की |
बस कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं,

और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ भी |

मगर फिर भी, 

ये झिलमिल आँखें बयाँ कर जाती हैं, 

 दर्द-ए-दिल की उस कसक को भी,

जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे ना लिख पाए कभी |

वक़्त : उसूल : जज़्बात