वो कहते रहे –
” तुम कुछ काम के नहीं,
ना हो ख़ास, ना होगा तुम्हारा नाम कहीँ,
अपनी इन हसरतों पे लगाओ लगाम सही,
ना करदे ये तुम्हें बदनाम कहीँ,
होता है अगम्य ख्वाबों का अंजाम यही | “
शब्दों की इस नकारात्मकता ने –
हमको हर दिन सताया,
रातों का भी चैन गवाया,
ना अब नीन्द थी, ना ही सपनें,
यूँही लेटे रेहते थे इस बिस्तर पे तड़पने,
सुबह भी अब फ़ीकी फ़ीकी सी लगने लगी,
शाम आते आते उम्मीद की लौ भी बुझने लगी |
ऐसा लगता था –
जैसे कोई खिला फूल भी महकना भूल गया हो,
जैसे कोई नन्हा बच्चा भी चहकना भूल गया हो |
उमंग भरी आँखों का ये तेज,
गहरे काले घेरों में ओझल होने लगा,
ऊर्जा भरे अस्तित्व का ओजस भी,
देह के इन टूटी दरारों में मद्दीम होने लगा |
बस यूँही गूँजती रही वो बातें,
और हर पल लगता रहा येही,
मानों जैसे वो ना होकर भी यहाँ,
हर पल हमें बस यूँही बद्दुआ देते रहे |
चोट : अस्तित्व : आरोप