
रास्ता ये ख़त्म होते जब नज़र आया ,
एक अदृश्य राह प्रारम्भ हो गई,
मुसाफ़िर सा मैं यूँ सोचने लग गया,
ये कौनसी आरज़ू उजागर हो गई,
धरा से जुड़े थे देह और ये साया,
मगर अब इन्हें नीर से मिलन की चाहत हो गई,
बाहर एक कदम जब हौसले का उठाया,
तब अन्दर भरी शंका कहीँ खो हो गई,
धीरे धीरे मैं इस जल में सुकून से यूँ बहता गया,
जैसे सदियों पुरानी तड़प की ये तलाश ख़त्म हो गई,
और फिर देह और इस साये को मैं यूँ त्याग आया,
जैसे आत्मा की इस बंधन से सदा के लिए मुक्ति हो गई |
रास्ता : धरा : नीर