काल के ना जाने कौन से क्षण में, ये प्रक्रिया आरम्भ हुई- चिदाकाश के दायरे ओझल होने लगे, रिक्त होने लगा स्मृतियों का पात्र, रिसने लगे उसमें से भावों के रंग, घुलने लगे वो यूँ हौले हौले, महाकाश की अपरिमितता में, किसी अज्ञात विशाल कुंड में | ये ही यात्रा है, आत्मान के ब्रह्मन् से युति की | ये ही यात्रा है, मोक्ष की |
ये अश्रुधारा कोई आगंतुक नहीं, निवासी है इस ह्रदय द्वीप की, इसका आगमन नहीं हुआ कभी, ये आरम्भ से है विभव लिए, एक सैलाब के अस्तित्व का, मगर स्थिर रहती है फिर भी, प्राण वेग को उत्प्लाव देती हुई, ठहराव की सुगम प्रबल स्तिथि से, रिसाव की विश्रृंखल दुर्बल अवस्था में, तब ही आती है ये, जब होता है एक निर्दयी आघात, इसके धैर्य पर, इसकी स्तिरथा पर, इसकी निशब्द आभा पर, इसकी रहस्यमयी छवि पर, इसके सम्पूर्ण अस्तित्व पर | और फिर होता है ऐसा आडम्बर, एक आवेग पूर्ण दृश्य का मंज़र, जो पहले सब धुंधला कर जाता है, और फिर क्षणिक अनुभूति सा, ओझल हो जाता है, किसी गहरे तल पर, जो अंतर्मन की दृष्टि के, एक सूक्ष्म स्मृति सा, उसके ही अंक में, यूँ समा जाता है, अस्मिता का अभिन्न अंशलेख बनकर | कर्म और काल के दायरे में, इस कदर बद्ध होकर, भौतिक तृष्णानाओं के व्यूह में, फिर एक दास्तान बनाने, फिर आघात से विक्षुब्ध होकर, फिर रिसाव की प्रक्रिया को, उन्ही चरणों से ले जाकर, अवगत कराना उसका स्थान, अस्मिता में |
एक अस्तित्व था, जिसका आकार भी, रूप भी, छवि भी, औचित्य भी, जो काल बध्य होकर, पूर्ण था, मगर क्षण क्षण घटता गया, उसका आकार, उसका रूप भी, उसकी छवि, उसका औचित्य भी, और आज जो प्रत्यक्ष है, वो सिर्फ़ अवशेष हैं, अधूरी कहानी से, किसीके इतिहास के, जो सिर्फ़ तर्क वितर्क, और अनुमान के दायरे में, सीमित रहकर, एक शोध का विषय बन जाएँगे, मगर क्या कभी भी, इस अवशेष का, सत्य हम जान पाएँगे?