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तुम साथी, मैं संगिनी

Source : Internet

मुझे मोती की माला की चाह नहीं,
तू लहरों के चूमे हुए,
रेत में लिपटे हुए,
कुछ कोरे सीपी ले आना,
उन्हें पिरोकर एक हार बना लूँगी |
मुझे सोने के कंगन नहीं लुभाते कभी,
तू शहर के पुराने बाज़ार से,
कॉंच की रंग बिरंगी चूड़ियाँ ले आना |
मुझे रेशमी साड़ी नहीं पहननी,
तू सतरंगी सूती साड़ी ले आना |
मुझे चाँदी की पायल नहीं छनकनी,
तू दरगाह से मन्नत का धागा ले आना |
मुझे पकवान मिठाई नहीं खाने,
तू सड़क किनारे इन झाड़ियों से तोड़कर
एक टोकरी मीठे पके बेर ले आना |
मुझे काँसे के बर्तन नहीं खरीदने,
तू पड़ोस के कुम्हार से,
मिट्टी के कुछ बर्तन ले आना |
मुझे मेहेंगे इत्तर नहीं छिड़कने,
तू इस आँगन में मेहकते हुए,
मोगरा रजनीगंधा के पेड़ लगाना,
भोर की बेला में,
कुछ कलियाँ तोड़कर,
इन केशों को सजा देना |
मुझे इस घर को,
कीमती चीज़ों से नहीं सजाना,
तू दशहरे के मेले से,
लकड़ी की छोटी बड़ी आकृति ले आना |
मुझे कहीँ सैर पे दूर मत ले जाना,
पूनम की चाँदनी रात में,
झील में नौका विहार करा लाना,
सावन में छतरी ना सही,
शाम को बारिश में भीगते हुए,
निम्बू मिर्ची रचा हुआ,
कोयले पे सिका हुआ,
भुट्टा खिला आना,
मई की सुलगती गर्मी में,
गली में घूमते हुए,
उस बूढ़े फेरीवाले से,
बर्फ़ का गोला दिला देना,
दिसंबर की ठिठुरती ठंड में,
पुराने किले के बाहर बैठे,
उस छोटे से तपरीवाले से,
एक प्याला मसाला चाय पीला लाना |
मुझे मोटर गाड़ी में नहीं बैठना,
तू साइकल में बैठाकर,
मुझे खेत खलियान की सैर कराना |
मुझे गद्देदार शय्या में नहीं सोना,
खुली छत पर चटाई बिछाकर,
सितारों भरी रात में,
पूर्वय्या के मंद स्पर्श के साथ,
सुकून की नीन्द सुला देना |
बस यूँही उम्र भर साथ रहकर,
हर पल को ख़ुशनुमा,
और यादगार बना देना |


साथी : संगिनी : विवाह

दर्शन

दोपहर

जीवन की एक हक़ीक़त ऐसी भी |

पगदण्डी और धूप

दोपहर

अप्रैल की 40 डिग्री वाली गर्मी का था कुछ ऐसा नज़ारा,

दोपहर के 2 बजे वाली धूप में सुलगता था शहर सारा,

तपती काली सड़क के उजले उजले से वो किनारे,

मगर पगदण्डी पर बनते ना जाने कितने अँधेरे भरे नज़ारे,

कोई फटी बोरी पर करता है चीज़ों की नुमाइश,

कोई काठ के टुकड़ों पर रखता अपनी हर अधूरी ख़्वाहिश,

कोई पुरानी चादर का बिस्तर है सजाता,

कोई टीन के पट्टे को अपनी छत है बनाता,

कोई मैले पानी से रगढ़कर धोता यूँ टूटे फूटे से बर्तन,

कोई किफ़ायत से यूँ खाता गैरों की दी हुई झूटन,

कोई दुआ के बदले सिक्के माँगता,

कोई बार बार पगदण्डी का दायरा लाँघता,

कोई बारिकी से खंगालता कचरे का खज़ाना,

कोई गिरता पड़ता चिल्लाता ना जाने कौन सा अफसाना,

कोई यूँही बैठा रहता यूँही शुष्क निशब्द,

हर कोई नज़र आता जैसे हो अपनी किस्मत से बद्ध,

ना ही कोई बसेरा, ना ही कोई सहारा,

सड़क की इस पगदण्डी पर ही बीत जाता जीवन सारा |

जीवन : हक़ीक़त : धूप