inspiration, Soulful

नूर – ए – कमर

तारीकी का आलम था,

बसारत मुबहम हुई,

इक़तिज़ा थी वज़ाहत की,

इंतिज़ार तवील-उल-मुद्दत का,

अलबत्ता रजा की आग उठी,

गुफ़्तुगू हुई क़ायनात से,

और फ़िर ये नज़ारा दिखा –

ज़र्रा ज़र्रा तस्दीक़ करता मिला,

नूर – ए – कमर की इंतिहाई की,

रेज़ा रेज़ा फ़िर तमाम हुआ,

ये ख़ुद – सर सख्त – अँधेरा,

और रोशन हुआ ये ज़मीर फ़िर,

मुसलसल वक़्त के लिए |

प्रदीप्ति

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सुकून

आलम रंज का था,

तोहमत लगी,

शिकायत हुई,

‘इताब बेहिसाब था,

चीखें उठी,

दा ‘वे हुए |

मगर,

ना जाने क्यूँ,

गुरूर के इस शोर में भी,

कहीं से अचानक,

बे – हिसी ख़ामोशी छा गई,

और इतनी नफ़रत के बीच भी,

ये दिल पुर – उम्मीद रहा,

कि ये वक़्त भी गुज़र जाएगा,

हर ज़ख़्म धीरे धीरे भर जाएगा |

दर्शन, philosophy, Spiritual

जल

ग्रीष्म ऋतु की उष्ण से,

माटी की ठंडक तक,

एक सम्पूर्ण यात्रा है,

इस जल की |

तप की अवधि,

और शीत का समय,

दोनों ही अनिवार्य है,

जल के अस्तित्व की,

सार्थकता और प्रभुता को,

स्थापित करने के लिए,

जन्म मृत्यु के,

इस अनवरत चक्र में |

प्रदीप्ति

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दर्शन, Spiritual

मोक्ष

काल के ना जाने कौन से क्षण में,
ये प्रक्रिया आरम्भ हुई-
चिदाकाश के दायरे ओझल होने लगे,
रिक्त होने लगा स्मृतियों का पात्र,
रिसने लगे उसमें से भावों के रंग,
घुलने लगे वो यूँ हौले हौले,
महाकाश की अपरिमितता में,
किसी अज्ञात विशाल कुंड में |
ये ही यात्रा है,
आत्मान के ब्रह्मन् से युति की |
ये ही यात्रा है,
मोक्ष की |

प्रदीप्ति

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दर्शन

जीवन

तरु के देह पर,
ये अनगिनत व्रण,
और छोटी बड़ी गाँठेँ,
उजागर करती हैं,
एक लम्बी कहानी,
अस्तित्व की |
हर एक ग्रंथि,
बयान करती हैं,
इसके संघर्ष की दास्तान |
ना जाने कितने मौसम देखे,
ना जाने कितने पल जिए,
अगर अवलोकन करें,
धैर्य के साथ,
इसके हर सूक्ष्म भाग का,
तो नज़र आएगी स्पष्ट रूप में,
हर एक अनुभूति,
इसके जराजीर्ण वजूद की |

प्रदीप्ति

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दर्शन

अहम् की अपूर्ण यात्रा

Image source : internet

अहम् की अपूर्ण यात्रा

एक सुर्ख सिंदूरी एहसास लिए है ये रैना,
जैसे अतीत की स्थिर स्मृतियाँ,
अस्थायी सा जंग लिए हो कोई,
और वर्तमान के ये गतिशील जज़्बात,
पुलकित भाव उजागर कर रहें हो भीतर |

जैसे जैसे मेरी सतह निस्तेज होती गई,
आतंरिक चुभती विषकत्ता को हटाती हुई,
वैसे वैसे वो प्रकट करती गई,
एक परत कोमल निश्चयात्मकता की |
ये भंजन ही वास्तविक उन्मुक्ति है,
‘अहम्’ की, इस प्रतिबंधित जीवन की बेड़ियों से |

ये अवखंडन अब एक आनंदमयी अनुभव होने लगता है,
और पुर्ज़ा पुर्ज़ा यूँ बिखरना,
स्वीकृति भाव को उत्पन्न करता है,
जो ‘अहम्’ को सूत्र के उद्गम में,
विलीन होने के लिए,
प्रोत्साहित करता रहता है |

मगर कालचक्र का ये प्रभाव,
‘अहम्’ को दोबारा समावेश में लेता है,
भौतिकता को अनुभव करने के लिए,
पुनः किसी काल में जन्म लेने के लिए,
किसी और रूप और नाम के साथ,
एक नूतन अस्तित्व में,
जो फिर से बाँध देगा,
इस जीवन को,
एक सीमित अवधि के लिए,
भौतिकता के जटिल पंक में |

मगर हर बार ‘अहम्’ पहुँचेगा इस दायरे के सिरे पर,
अभिज्ञता के आयाम से दूर होकर,
एक अज्ञात मक़ाम में प्रवेश करके,
जो इस भौतिक अवधारणा के परे होगा,
पुनः वही सुर्ख सिंदूरी एहसास दिलाता हुआ,
जैसे इस रात्रि में हुआ है |

प्रदीप्ति

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philosophy, poetry, Soulful, Spiritual

वेदना

वेदना की आवृत्ति जब जब उजागर होती गई,

तब तब एक गूढ़ शक्ति उसे तिरोहित करती गई,

मानो जैसे इस अपरिमय अनन्त के,

अस्तित्वहीन सिरों से मुद्रित होती गई,

निदोल सा ये जीवन होता गया,

ह्रदय जितना इसका अवशोषण करता गया,

अभिव्यक्ति उतनी ही तीव्र होती गई,

दोनों में द्वन्द्व बढ़ता ही गया,

और यूँही वेदना की आवृत्ति,

अनुनादि स्तर पर पहुँचती गई,

एक देहरी जहाँ पर आकर,

चयन करना अनिवार्य होता गया,

यहाँ –

आवेग के क्षण क्षीण होते गए,

रिक्त अवस्था सा वक़्त कोंपल होता गया,

तिमिर और दीप्त संयुक्त होते गए,

स्त्रोत और गंतव्य विलीन होते गए |

दर्शन, philosophy

आभास

ये अश्रुधारा कोई आगंतुक नहीं,
निवासी है इस ह्रदय द्वीप की,
इसका आगमन नहीं हुआ कभी,
ये आरम्भ से है विभव लिए,
एक सैलाब के अस्तित्व का,
मगर स्थिर रहती है फिर भी,
प्राण वेग को  उत्प्लाव देती हुई,
ठहराव की सुगम प्रबल स्तिथि से,
रिसाव की विश्रृंखल दुर्बल अवस्था में,
तब ही आती है ये,
जब होता है एक निर्दयी आघात,
इसके धैर्य पर,
इसकी स्तिरथा पर,
इसकी निशब्द आभा पर,
इसकी रहस्यमयी छवि पर,
इसके सम्पूर्ण अस्तित्व पर |
और फिर होता है ऐसा आडम्बर,
एक आवेग पूर्ण दृश्य का मंज़र,
जो पहले सब धुंधला कर जाता है,
और फिर
क्षणिक अनुभूति सा,
ओझल हो जाता है,
किसी गहरे तल पर,
जो अंतर्मन की दृष्टि के,
एक सूक्ष्म स्मृति सा,
उसके ही अंक में,
यूँ समा जाता है,
अस्मिता का अभिन्न अंशलेख बनकर |
कर्म और काल के दायरे में,
इस कदर बद्ध होकर,
भौतिक तृष्णानाओं के व्यूह में,
फिर एक दास्तान बनाने,
फिर आघात से विक्षुब्ध होकर,
फिर रिसाव की प्रक्रिया को,
उन्ही चरणों से ले जाकर,
अवगत कराना उसका स्थान,
अस्मिता में |

प्रदीप्ति

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दर्शन, philosophy, poetry

मुखौटे

ना जाने कितने ही चेहरे,
ना जाने कितनी ही पहचान हैं,
इस दुनिया के रंगमंच पर,
ना जाने हर किरदार,
पहनता है कितने ही मुखौटे |
कभी मुखौटा लहराती ख़ुशी का,
भीतर अपने ग़म का सागर लिए,
कभी मुखौटा ग़म के बादल का,
बिन अश्कों की बारिश लिए,
उसी मुखौटे से –
किसीके सामने हँसता है,
किसीके सामने रोता है,
किसीसे मुँह फेरता है,
किसीकी ओर ताँकता है,
कभी आक्रोश में भी ख़ामोशी लिए,
कभी प्रेम में अविरल बोलता हुआ,
कभी निराशा में कोरे लब लिए,
कभी उम्मीद में जगमगाती मुस्कान लिए |
हर इंसान पहनता मुखौटे हज़ार,
कुछ बदलते हैं पल पल,
तो कुछ उम्र भर भी नहीं,
कुछ अपनों के लिए,
तो कुछ होते गैरों के लिए,
कुछ सिर्फ़ एक सच के लिए,
तो कुछ हर तरह के झूठ के लिए |

philosophy, poetry, Soulful

स्पर्श

उठा लेती हूँ उन्हें भी,
बड़े ही स्नेह से,
जिन्हें खुदके प्रियवर ने त्याग दिया,
मालूम है मुझे ये सच्चाई,
इस स्नेह से ये फिर घर नहीं जा पाएँगे,
मगर कुछ क्षणों का कोमल स्पर्श,
इन्हें सुकून ज़रूर देगा,
नश्वरता को आलिंगन में लेने के लिए,
स्वैच्छा से, मधुरता से,
मिट्टी में विलीन होना भी आवश्यक है,
इस काल चक्र के संचालन के लिए,
फिर उजागर होने के लिए,
किसी और रूप में,
कोई और अस्तित्व लिए,
मगर सिर्फ़  प्रेम से,
जन्म से मरण तक,
फिर जन्म लेने के लिए |