
ना जाने क्या पाने निकला हूँ,
इस ओर जो खिंचा चला आया,
ढूंढ रही हैँ नज़रें उस सुकून को,
सहज बोध में तो जिसे पा लिया था,
मगर अब उसे यथार्थ में जीना चाहता हूँ,
कल्पना की असीमता में जो अनुभव किया,
अब उसे प्रत्यक्ष के दायरे में ढालना चाहता हूँ,
चल पड़ा हूँ अब इस राह पर,बनाने स्मृतियाँ कई,
तस्वीरों में क़ैद कर के,उस सुकून को,
जिसका बोध ये मन,
कर चूका था कभी |
सुकून : मन : तस्वीर