
आलम रंज का था,
तोहमत लगी,
शिकायत हुई,
‘इताब बेहिसाब था,
चीखें उठी,
दा ‘वे हुए |
मगर,
ना जाने क्यूँ,
गुरूर के इस शोर में भी,
कहीं से अचानक,
बे – हिसी ख़ामोशी छा गई,
और इतनी नफ़रत के बीच भी,
ये दिल पुर – उम्मीद रहा,
कि ये वक़्त भी गुज़र जाएगा,
हर ज़ख़्म धीरे धीरे भर जाएगा |