दर्शन, Spiritual

मोक्ष

काल के ना जाने कौन से क्षण में,
ये प्रक्रिया आरम्भ हुई-
चिदाकाश के दायरे ओझल होने लगे,
रिक्त होने लगा स्मृतियों का पात्र,
रिसने लगे उसमें से भावों के रंग,
घुलने लगे वो यूँ हौले हौले,
महाकाश की अपरिमितता में,
किसी अज्ञात विशाल कुंड में |
ये ही यात्रा है,
आत्मान के ब्रह्मन् से युति की |
ये ही यात्रा है,
मोक्ष की |

प्रदीप्ति

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दर्शन, philosophy

आभास

ये अश्रुधारा कोई आगंतुक नहीं,
निवासी है इस ह्रदय द्वीप की,
इसका आगमन नहीं हुआ कभी,
ये आरम्भ से है विभव लिए,
एक सैलाब के अस्तित्व का,
मगर स्थिर रहती है फिर भी,
प्राण वेग को  उत्प्लाव देती हुई,
ठहराव की सुगम प्रबल स्तिथि से,
रिसाव की विश्रृंखल दुर्बल अवस्था में,
तब ही आती है ये,
जब होता है एक निर्दयी आघात,
इसके धैर्य पर,
इसकी स्तिरथा पर,
इसकी निशब्द आभा पर,
इसकी रहस्यमयी छवि पर,
इसके सम्पूर्ण अस्तित्व पर |
और फिर होता है ऐसा आडम्बर,
एक आवेग पूर्ण दृश्य का मंज़र,
जो पहले सब धुंधला कर जाता है,
और फिर
क्षणिक अनुभूति सा,
ओझल हो जाता है,
किसी गहरे तल पर,
जो अंतर्मन की दृष्टि के,
एक सूक्ष्म स्मृति सा,
उसके ही अंक में,
यूँ समा जाता है,
अस्मिता का अभिन्न अंशलेख बनकर |
कर्म और काल के दायरे में,
इस कदर बद्ध होकर,
भौतिक तृष्णानाओं के व्यूह में,
फिर एक दास्तान बनाने,
फिर आघात से विक्षुब्ध होकर,
फिर रिसाव की प्रक्रिया को,
उन्ही चरणों से ले जाकर,
अवगत कराना उसका स्थान,
अस्मिता में |

प्रदीप्ति

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philosophy, poetry

नीर

नीर समझकर हमें जिन्होंने,
सिर्फ़ एक अनुयायी के रूप में ही देखा,
और ये ही अपेक्षा करते रहे,
कि ये तो नीर है,
जैसा भी दायरे दोगे,
ये उस दायरे में समा जाएगा |
वो ये नहीं समझ पाए कभी,
कि समायोजन करके इसका,
अनुनेय व्यक्तित्व वाला नीर भी,
एक हद्द के बाद,
हर सीमा,
हर दायरे को पार कर,
सिर्फ़ एक ही काम करता है,
सैलाब लेकर आता है |

पटरा कर देना ज़माने का काम था,
हमने तो सिर्फ़ अपना जलवा दिखा दिया |

दर्शन, inspiration, philosophy, poetry

काल

पुरातन से नूतन तक का ये अस्थिर सफ़र,
कारण और प्रभाव के ये बदलते अभिप्राय,
जीवन के ये विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण,
व्यक्तिगत और सामजिक विचारधारा के ये द्वन्द्व,
कला और व्यापार की अनुपयुक्त प्रतिस्पर्धा,
सार्थकता और निरर्थकता का ये अनसंतुलित तराज़ू,
परंपरावाद और उदरवाद के बीच के ये बढ़ता घटता फ़ासले,
प्रत्यक्ष और परोक्ष का ये बौद्धिक विवाद |

इस काल चक्र में-
सब परिवर्तनशील है,
और सब स्थिर भी,
जो आज अर्थपूर्ण है,
वो कल निरुपयोगी होगा,
जो कल परम्परा थी,
वो आज स्वच्छन्द है |

सब कुछ यहीं है,
हर क्षण,हर पल,
कभी शूक्ष्म रूप में,
कभी प्रचण्ड आकार में,
कभी संकुचित दायरे में,
कभी असीम तथ्य में |

ये ही सुघड़ता है,
ये ही विशिष्टता है,
इस जीवन की |

सोच : काल : दर्शन