दर्शन, inspiration, philosophy, poetry

चौखट

चौखट
परते उतरती हर कोने की,

साथ में गिरते उनके झर झर,

हल्दी कुमकुम के सूखे कण,

रोशन करता इन टूटी दरारों को,

एक छोटा सा मिट्टी का दिया,

सजता हर सुबह ये,

पीले नारंगी गेंदों की माला से,

और बँधती आम्र पत्रों की डोर,

इसके दोनों सिरों से,

धुलता ये गेरुआ फर्श भी,

बनती रोज़ इसके सामने,

रंगोली चावल की,

गुज़रते इससे दिन में कई बार,

घर के बूढ़े बच्चे सभी,

कोई खिलखिलाता,

कोई मुस्कुराता,

कोई माथे पे शिकन लिए,

कोई दिल में बोझ,

कोई पुरानी यादें लिए,

कोई अधूरी इच्छायें लिए,

कोई दर्द छिपाये हुए,

कोई क्रोध दिखाते हुए |

देखी है इसने,

ख़ुशी और नई ज़िन्दगी,

किलकारियाँ शिशु की,

खनकती पायल चूड़ियाँ नई बहु की,

और देखे हैं इसने,

कई दुख भरे पल भी ,

सदगति प्राप्त होते बुज़ुर्ग,

विदाई होती बिटिया भी |

सब कुछ समेटे है ये,

कई सालों से,बनके

एक मज़बूत प्रतिक,

जीवन का,

और उसके पल पल बदलते,

हर रूप का |

चौखट : जीवन : दर्शन

दर्शन, philosophy, poetry, Soulful

प्रियतम और भोजन

पत्थर की पटिया साफ़ पड़ी है,
बर्तन भी सारे धुल गए,
भोजन का वक़्त हो गया,
सबके आने का वक़्त हो गया,
चलो तैयारी करलूँ –
” चार मुट्ठी चावल निकाल लूँ,
और भिगाकर रख दो उन्हें,
तब तक ज़रा खेत से,
पालक के कुछ पत्ते तोड़ लूँ,
इमामदस्ते में कूट लूँ ज़रा,
खड़े मसाले सारे,
लाल मिर्च थोड़ी ज़्यादा डाल देती हूँ ,
इन्हें तीखा जो पसंद है,
लहसुन की दो डली काफ़ी है,
अरे! अदरक तो बाज़ार से लाना भूल गई,
चलो कोई बात नहीं,
अदरक का अचार मर्तबान में रखा है,
उसी को इस्तमाल करुँगी,
पालक को धोकर काट लेती हूँ,
हांडी में चावल चढ़ा देती हूँ,
तेल भी अब गरम हो गया,
जीरे लहसुन का तड़का लगा लूँ,
पालक भी अब भुन कर पक गया,
इनमें पके चावल मिला दूँ,
ढँक के दम देती हूँ इन्हें,
तब तक साड़ी की इन सिल्वटों,
और इन उलझी लटों को सुधार लूँ,
आईने में देखलूँ खुदको ज़रा,
कुमकुम सुरमा फिर से लगा लूँ,
एक हरी चूड़ी टूट गयी थी,
उलझकर खेत के काँटों में,
दूसरी चूड़ी पहन लेती हूँ |
शिखर के मंदिर की आरती अब समाप्त हुई,
फेरलीवाले भी अब वापस जाने लगे,
लगता है इनके आने का वक़्त हो चुका |
आँगन में बैठ जाती हूँ कुछ देर,
जूड़ा अधूरा सा लग रहा है,
जूही के इन फूलों का गजरा बना लूँ |
पालक भात की खुसबू के साथ,
गजरे की महक भी घर में फैला दूँ,
ये दिया जो चौखट पे जल रहा है,
तेल कम लग रहा है इसमें,
थोड़ा सा इसमें तेल डाल लूँ,
उफ़! ये बिखरे पत्ते नीम के,
इन्हें भी ज़रा साफ़ कर लूँ,
आते ही होंगे ये,
ज़रा आईने में खुदको फिर से निहार लूँ,
थाली लुटिया सब रख दी,
मुखवास की डिबिया भी,
बस इनकी राह देख़ रही हूँ,
आज इतनी देर क्यूँ हो गई?
बैठ जाती हूँ फिर से आँगन में,
पूनम के चाँदनी में धुला ये आँगन,
हल्की ठंडी पुर्वा का ये स्पर्श,
उफ़! कब आएँगे ये घर,
आज इतनी देर क्यूँ हो गई?”

विवाह : प्रेम : समर्पण

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दिया और बाती

दीए ने बाती से, 

कुछ कहना चाहा |

समय सही थी, 

और जज़्बात भी |

दिया बोला, 

कुछ व्याकुल होकर –

“इस सुनी चौखट, 

और अँधेरी गली में, 

अनजान शहर में, 

और यहाँ बसने वालों की 

बेरुखी में |”

ये सुनते ही बाती ने दिए को रोका और बोली, 

कुछ अप्रभावित सी –

” आज हूँ मैं, 

कल नहीं,

इस लौ के साथ, 

ख़तम हो जाऊँगी,

ना सुनी चौखट, 

ना अँधेरी गली, 

और ना ही इस अनजान शहर में, 

बसने वालों की बेरुखी, 

से मेरा कोई वास्ता है | “

दिया बोला, 

एक गहरी कसक के साथ –

” सही कहा तुमने, 

जिसकी परेशानी वो जाने, 

तुम जलकर ख़ाक हो जाऊगी, 

एक लौ मैं सिमटी है, 

तुम्हारी ये ज़िन्दगी, 

और उतनी ही सिमटी सोच है |”

इस पर बाती बोली, 

क्रोधित होकर –

” हाँ ! सही कहा, 

ये एक लौ की ज़िन्दगी मेरी, 

 सब कुछ रौशन

तो करके जाती है, 

लेती नहीं कुछ भी , 

और बस ख़त्म हो जाती है |

तुम किस काम के हो?

ज़र्र सा फ़िसले, 

और चूर चूर |

वरना यूँही व्यर्थ पड़े हुए, 

एक गुमनाम ज़िन्दगी लिए |

ज़िन्दगी हो कम सही, 

कर्मण्य हो मगर | “

अब दिया बोला, 

 मुस्कुराते हुए –

” ये लौ की ख़ाक, 

मुझ पर भी रह जाएगी, 

किसीके नैनों का

 काजल बनेने के  लिए, 

कुछ खो कर ही 

कुछ पाते हो, 

दस्तूर ज़िन्दगी का 

इस तरह निभाते हो, 

कौन कितना जिया 

इससे क्या वास्ता |

सार्थक जीवन वही, 

जहाँ ग्लानि और पीड़ा

अपने से ज़्यादा, 

दूजे की, 

महसूस की जाए, 

और

ये स्वीकार करो,

कि

जीवन ये भी है और वो भी, 

अतुल्य है, अमूल्य है, 

तुम्हारा भी और मेरा भी |”

ये सुनकर, 

बाती और प्रज्वलित हो उठी, 

और बोली, 

स्नेह से –

“आओ मेरे संग, 

ओ ! माटी का प्यारे से रूप, 

मैं भी उसी धरा का एक अंश हूँ, 

और 

वहीँ फिर मिल जाना है, 

तुम्हें भी और मुझे भी, 

ये आखरी मुलाकात नहीं, 

मिलन की बेला है, 

आओ संग मेरे, 

ख़ाक बनकर तुमपे लिपट जाँऊ, 

सफ़ल हो जाएगा मेरा ज़िन्दगी का ये सफ़र |”

और यूँ झिलमिलाती वो लौ, 

विलीन हो गई, 

दिए की काया पर |

असीम प्रेम इसे ही कहते हैं |

दिया : बाती : प्रेम