दर्शन, inspiration, philosophy, poetry

चौखट

चौखट
परते उतरती हर कोने की,

साथ में गिरते उनके झर झर,

हल्दी कुमकुम के सूखे कण,

रोशन करता इन टूटी दरारों को,

एक छोटा सा मिट्टी का दिया,

सजता हर सुबह ये,

पीले नारंगी गेंदों की माला से,

और बँधती आम्र पत्रों की डोर,

इसके दोनों सिरों से,

धुलता ये गेरुआ फर्श भी,

बनती रोज़ इसके सामने,

रंगोली चावल की,

गुज़रते इससे दिन में कई बार,

घर के बूढ़े बच्चे सभी,

कोई खिलखिलाता,

कोई मुस्कुराता,

कोई माथे पे शिकन लिए,

कोई दिल में बोझ,

कोई पुरानी यादें लिए,

कोई अधूरी इच्छायें लिए,

कोई दर्द छिपाये हुए,

कोई क्रोध दिखाते हुए |

देखी है इसने,

ख़ुशी और नई ज़िन्दगी,

किलकारियाँ शिशु की,

खनकती पायल चूड़ियाँ नई बहु की,

और देखे हैं इसने,

कई दुख भरे पल भी ,

सदगति प्राप्त होते बुज़ुर्ग,

विदाई होती बिटिया भी |

सब कुछ समेटे है ये,

कई सालों से,बनके

एक मज़बूत प्रतिक,

जीवन का,

और उसके पल पल बदलते,

हर रूप का |

चौखट : जीवन : दर्शन

philosophy, Shayari, Souful, Soulful

उलझन

कैसे करें ऐतबार इस इश्क़ पर,

यहाँ तो मेहताब भी,

हर रात अपना रूप बदलता है,

कैसे भरें साँसें सुकून की,

यहाँ तो बिन मौसम भी,

बादल तड़पकर बरसता है,

कैसे लाएँ आस इस दिल में,

यहाँ तो ठिठुरती सर्दी में भी,

पेशानी से टप टप पसीना निकलता है,

कैसे मनाए इस रूठे मन को,

यहाँ तो बसंत की बेला में भी,

बस आलूदगी का धुँआ चलता है,

कैसे माने की नसीब अच्छा है हमारा,

यहाँ तो सितारों भरी खूबसूरत रात में भी,

सिर्फ़ शहर की नक़ली रोशनी का नज़ारा मिलता है,

कैसे लाएँ इन आँखों में ठंडक,

यहाँ तो शान्त पानी के नीचे भी बवंडर पलता है,

कैसे दे इस रुह को तस्सली,

यहाँ तो मज़बूत चट्टानों में भी,

अन्दर ही अन्दर खोकलापन पनपता है |

उलझन : ज़िन्दगी : सोच

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एक दिल की आवाज़

हम सबका दिल कुछ ना कुछ कहना चाहता है, मगर हम उसे अनसुना कर देते हैं | और फिर तड़पते रहते हैं की क्या है जो अन्दर से बेचैन कर रहा है | आज मेरे दिल की आवाज़ कुछ यूँ कह रही है |

तुम क्या जानो,

इंतज़ार का समर्पण,
और एतबार की कसक,
यूँही गुज़रते ये दिन,
गुमसुम सी ये साँसें
रुकी रुकी सी हवा जैसे,
चाहती है बहना,
मदमस्त होकर,
तुम्हारे संग उम्र भर |

दिल : आवाज़ : जज़्बात

Shayari, Souful

शायराना सी ये शाम

कभी कभी ऐसा महसूस होता है की इबादत और दुआ में कुछ कमी रह गई, जो ये मोहब्बत नसीब ना हुई | फिर लगता है कि शायद मोहब्बत का मुक़ाम हर कोई पा सकता | खैर कोई बात नहीं, मुक़ाम ना सही, सफ़र तो तय कर ही सकते हैँ |

मोहब्बत : मुक़ाम : सफ़र

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ये चाँदनी – एक नज़्म

नूर की ख़्वाहिश किसे नहीं होती | हमें भी है – एक नज़्म इसी ख़्वाहिश के नाम |


उधर नूर उस मेहताब का, 

छुपाता बदली का ये नक़ाब, 

इधर दीदार की तलबगारी में, 

रश्क़ करता ये मन,

 नज़रों में ही बुन लेता ख़्वाब, 

इसी चाह में, 

कि मिल जाए  कुछ राहत, 

इस दिल-ए-बेकरारी को |
“कुछ सुकून तुम रख लो, 

कुछ हमें बक्श दो, “

कहता हुआ ये मन, 

दम भरता धीमें धीमें, 

जब झिलमिल आँखें मूँद लेता, 

तभी फ़िज़ा की एक शरारत, 

मुकम्मल कर देती उस ख़्वाहिश को |

और, 

उस माहेरु की एक झलक पाकर,  

ये महदूद भी बेशुमार हो जाता |

©प्रदीप्ति 

नूर: माहेरु: ख़्वाहिश

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मरासिम

उसूल ज़रूरी हैँ या जज़्बात? इसी कश्मक़श को ज़ाहिर करने की कोशिश की है एक नज़्म से |


वक़्त,

वक़्त,
एक कलम की तरह,

ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर,

लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने,

लेकिन,

कुछ आसान सा नहीं नज़र आता,

इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़,

कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं,

जज़्बातों की ये लकीरें भी, 

क्योंकि रुख बदल देती है उनका,

ये नबीना असूलों की हवा,

और तब्दील कर देती हैं, 

हयात इस पाक इश्क़ की |
बस कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं,

और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ भी |

मगर फिर भी, 

ये झिलमिल आँखें बयाँ कर जाती हैं, 

 दर्द-ए-दिल की उस कसक को भी,

जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे ना लिख पाए कभी |

वक़्त : उसूल : जज़्बात