इतिहास ये – गेरुआ सा, धुँधला सा, घटता हुआ | ईमारतें टूटी फूटी सी, दीवारें भी दरारों भरी, धरोहर फिर भी मज़बूत, स्तम्भ ये अडिग खड़े हुए \ पत्थरों पर जमी वक़्त की काई, ज़मीन पर पनपती प्रकृति, ये संतुलित सा आकार, ना अब तक बंजर हुआ, ना ही बसेरा बना | प्रदीप्ति
जब पहुँची अपने गाँव, तब जाना अपने अस्तित्व को, बड़े ही क़रीब से | और बैठी हुई मैं, घर के इस आँगन में, सोचती रही कुछ यूँ |
आँगन
ये आँगन टूटा फूटा सा, और ये धरातल की दरारें, बयाँ करती हैँ दास्तान, कुछ पुरानी यादों की, ग्लानि और अभाव से पूर्ण, ये दीवारों के उतरता रंग, एक व्याख्या प्रकट करते हैँ, अधूरी ख्वाहिशें के, बिखरने की, उलझे रिश्तों के, जकड़ने की, कुछ खामोशियों की, कुछ सिसकियों की, जो आज भी सुनाई देती हैँ, ये ही आभा है, अतीत की, जो प्रत्यक्ष है, मगर समीप नहीं| है नेत्र की सीमा से परे, मगर जाती हैँ, अंतर्मन के दायरे की ओर, और छू जाती हैँ, उस सूक्ष्म कण को, जो ओझल सा था, मगर असीम सा, अस्तित्व लिए हुए, अतीत का, वर्तमान में, भविष्य तक |