
जाओ पूछो उस पूनम के चाँद से,
कि कितनी तड़प थी,
इस चाँदनी रात में,
तुझसे मिलने की |कतरा कतरा रोशनी भी,
चुभन मीठी सी देती है,
तेरा स्पर्श मेरे होठों पर,
और इस कोमल काया के,
हर एक अंग पर, गहरी छाप छोड़ जाता है,
तूने इसे छुआ जो है,
प्रेम से |
वो निशा भी साक्षी है,
उन अर्द्ध गहरी स्वाशों की,
और नैनों की खोयी निद्रा की,
जो इंतज़ार में रहते हैं,
तुझे छूने के लिए,
और समाना चाहते हैं खुदमें,
इस समय को यहीं रोक कर |
बस दो लफ्ज़ कहकर,
हम खामोश हो जाएँ,
महसूस करने के लिए,
उन लफ़्ज़ों की ऊर्जा को,
और ध्वनि की ये आवृत्ति,
यूँही गूँजती रहे,
तुम्हारे और मेरे,
रोम रोम में,
अनंत तक |
ये शीतल झील,
भी बयान कर रही है,
कि मिलन की आस में,
जब छुआ मैंने,
अपने उग्र तन से,
किस कदर ऊष्ण हुई,
नीर की एक एक बूँद,
और यूँही धुआ धुआ,
हुआ ये नीला गगन,
संध्या की बेला में,
लालिमा लिए,
सूर्य की नहीं,
मेरे तेजस्वी प्रेम की,
जिसकी अग्नि जगमगा सकती है,
ब्रह्माण्ड के सैकड़ो आकाशों को,
इस काल चक्र के दायरे से परे |
क़ायनात का ज़र्रा जर्रा भी,
समाए हुए है,
इस प्रेम का अस्तित्व,
इस मिलन की लालसा,
इस इंतजार की पीड़ा,
और मेरे हर जज़्बात की छवि,
कि जब भी तू देखे,
चाहे इस असीम नभ को,
या इस प्रगाढ़ अवनि को,
चाहे वर्षा ऋतु के वृक्षों को,
या पतझड़ में बिखरे पत्तों को,
चाहे गहरे समुन्दर को,
या ऊँचे पर्वतों को,
चाहे बहती नदियों को,
या बरसती बौछारों को,
चाहे कच्चे रास्तों को,
या पक्की इमारतों को,
सब में पाए ,
बस येही,
मेरे प्रेम को |
प्रेम : तुम : मैं