philosophy, poetry, Soulful

स्पर्श

उठा लेती हूँ उन्हें भी,
बड़े ही स्नेह से,
जिन्हें खुदके प्रियवर ने त्याग दिया,
मालूम है मुझे ये सच्चाई,
इस स्नेह से ये फिर घर नहीं जा पाएँगे,
मगर कुछ क्षणों का कोमल स्पर्श,
इन्हें सुकून ज़रूर देगा,
नश्वरता को आलिंगन में लेने के लिए,
स्वैच्छा से, मधुरता से,
मिट्टी में विलीन होना भी आवश्यक है,
इस काल चक्र के संचालन के लिए,
फिर उजागर होने के लिए,
किसी और रूप में,
कोई और अस्तित्व लिए,
मगर सिर्फ़  प्रेम से,
जन्म से मरण तक,
फिर जन्म लेने के लिए |

inspiration, poetry, Soulful

जीवंत

इस अंतारंग के संताप को,इस कदर घोला तुमने,अपने महासागर रुपी प्रेम में,जैसे घुलती हो ये जमी उंगलियाँ,इन ऊन के धागों से बुने दस्तानों में,जो सौम्य सा सौहार्द देते हैं,दिसंबर की ठिठुरती ठंड में |और यूँ बेपरवाह सी जीती हूँ मैं अब,ना सूरज के उगने की चिंता होती है,ना ही कलियों के खिलने की चाह |
अब तो आभास होता है,एक क्रान्ति सा परिवर्तन का,इस अंतर्मन में,जिसे सदियों से जकड़ रखा था,कई दानावों ने,जो कुचलते रहे सोच को,छीनते रहे शान्ति,औरमेरे काल्पनिक उल्लास को भी |आज,आखिरकर,मैं उन्मुक्त हूँ,निरंकुश और श्वसन,हाँ!आख़िरकार,मैं सही मायने में जीवंत हूँ |

दर्शन, philosophy, Spiritual

नमी

सतह सुर्ख है,तृष्णा गहरी है,प्रेम का असीम समंदर है अन्दर,फिर भी ना जाने कैसी अजब कमी सी है |उठता है तूफ़ान इस कदर,हर पल फूटना चाहता हो जैसे,मगर ये अश्क़ बहते भी नहीं,दो बूँद नैनों में झलकती भी नहीं,जबकि श्वासों से लेकर देह तक इतनी नमी सी है |क्यूँ फैला है अनन्त तक,ये खालीपन ?ना अँधेरा है ना ही रोशनी,ना नज़र आता ऊपर ये आसमान,और ना ही महसूस होती नीचे कोई ज़मीन सी है |कुछ रुका भी नहीं,कुछ बहा भी नहीं,कुछ दिखा भी नहीं,कुछ छुपा भी नहीं,कोई आरज़ू भी नहीं,कोई शिकायत भी नहीं,ना ही बेबसी है,ना ही बेचैनी है,ना जाने कैसी रहस्यमयी एहसास है ये,कभी ना तृप्त होने वाली वीमोही प्यास है ये |

दर्शन, inspiration, philosophy

क्या?

क्या पँखुड़ी फूल से जुदा है?क्या कली को अपना कल पता है?क्या बहार पतझड़ से डरती है?क्या बंजर ज़मीन फूटने से कतरती है?क्या नदी ठहरना चाहती है?क्या सागर बहना को तरसता है?क्या आकाश सूर्य से रंग चुराता है?क्या सूर्य बादलों पे प्यार जताता है?क्या चाँद रोज़ बेनक़ाब होना चाहता है?क्या सूरज कुछ दिन विश्राम करना चाहता है?क्या हवा अपनी गति की मोहताज होती है?क्या बारिश की बूँदों में भी प्यास होती है?क्या रात को दिन से ईर्ष्या होती है?क्या शाम को अपने अस्तित्व की चिंता होती है?क्या फूलों को अपनी महक पे अभिमान होता है?क्या पर्वत को अपनी विशालता पे गर्व होता है?क्या सूखे फूलों को फिर से खिलने की इच्छा होता है?क्या टूटी लहरें फिर से उभरना चाहती हैं?क्या सुलगता लावा भी ठंडकता चाहता है?क्या बर्फ़ की चादर भी गर्माहट चाहती है?क्या कोयला हर बार हीरा बन पाता है?क्या टूटा कॉंच फिर से जुड़ पाता है?क्या दर्द को दवा की ज़रूरत होती है?क्या दुआ हर बार पुरी होती है?क्या ये उदासी इतनी ज़रूरी होती है?क्या ये ख़ुशी एक मजबूरी होती है?क्या ये अश्क़ कमज़ोरी होते हैं?क्या ये प्रेम यूँही सदैव रहता है?क्या एक दूजे से मिलना तय होता है?क्या ये रिश्ते अकेलेपन से कीमती हैं ?क्या ये अपने गैरों से क़रीब होते हैं?क्या पहचान अनजान होना चाहती है?क्या अनजान हमेशा के लिए जुड़ना चाहते हैं?क्या खोना जीवन का दस्तूर होता है?क्या पाना हमेशा स्वार्थ होता है?क्या है और क्या नहीं?क्यूँ है और क्यूँ नहीं?कब है और कब नहीं?इसका तो पता नहीं,मगर,ये सवाल यूँही उठते रहेंगे,कुछ का जवाब मिल जाएगा,कुछ यूँही रहस्य बनके रहेंगे |

क्या : रहस्य : सवाल

poetry, Soulful

प्रेम

जाओ पूछो उस पूनम के चाँद से,

कि कितनी तड़प थी,

 इस चाँदनी रात में,

तुझसे मिलने की |कतरा कतरा रोशनी भी,

चुभन मीठी सी देती है,

तेरा स्पर्श मेरे होठों पर,

और इस कोमल काया के,

 हर एक अंग पर, गहरी छाप छोड़ जाता है,

तूने इसे छुआ जो है,

प्रेम से |


वो निशा भी साक्षी है,

उन अर्द्ध गहरी स्वाशों की,

और नैनों की खोयी निद्रा की,

जो इंतज़ार में रहते हैं, 

तुझे छूने के लिए,

और समाना चाहते हैं खुदमें,

इस समय को यहीं रोक कर |

बस दो लफ्ज़ कहकर,

हम खामोश हो जाएँ,

महसूस करने के लिए,

 उन लफ़्ज़ों की ऊर्जा को,

और ध्वनि की ये आवृत्ति,

यूँही गूँजती रहे,

तुम्हारे और मेरे,

 रोम रोम में,

अनंत तक |


ये शीतल झील,

भी बयान कर रही है,

कि मिलन की आस में,

जब छुआ मैंने,

अपने उग्र तन से,

किस कदर ऊष्ण हुई,

नीर की एक एक बूँद,

और यूँही धुआ धुआ,

हुआ ये नीला गगन,

संध्या की बेला में,

लालिमा लिए,

सूर्य की नहीं,

 मेरे तेजस्वी प्रेम की,

जिसकी अग्नि जगमगा सकती है,

ब्रह्माण्ड के सैकड़ो आकाशों को,

इस काल चक्र के दायरे से परे |


क़ायनात का ज़र्रा जर्रा भी,

समाए हुए है,

इस प्रेम का अस्तित्व,

इस मिलन की लालसा,

इस इंतजार की पीड़ा,

और मेरे हर जज़्बात की छवि,

कि जब भी तू देखे,

चाहे इस असीम नभ को,

 या इस प्रगाढ़ अवनि को,

चाहे वर्षा ऋतु के वृक्षों को,

 या पतझड़ में बिखरे पत्तों को,

चाहे गहरे समुन्दर को,

या ऊँचे पर्वतों को,

चाहे बहती नदियों को,

या बरसती बौछारों को,

चाहे कच्चे रास्तों को,

या पक्की इमारतों को,

सब में पाए ,

 बस येही,

मेरे प्रेम को |

प्रेम : तुम : मैं

दर्शन, inspiration, philosophy

प्रतिबिम्ब

© Aakash Veer Singh Photography

जब बना ये जलाशय एक दर्पण,

इस अनछुए आसमान का,

तब खुले अनकहे राज़ कई,

और इन बादलों ने बयाँ किए,

अनसुने उनसुलझे रहस्य कई,

जैसे सम्मुख आ गया हो अतीत,

वर्तमान का नीला दामन ओढ़े,

और बैठा हो तैयार इस इंतज़ार में,

कि कोई तो उजागर करे,

इस प्रच्छन्न जज़्बात को,

गहरे काले अंधकार जैसा,

जिसे समझने का हौसला,

सिर्फ़ प्रेम में होता है,

जैसा हुआ है,

इस जलाशय को,

उस आकाश से |

प्रतिबिम्ब : जलशय : आसमान

दर्शन, inspiration, philosophy

प्रेम प्रसंग

photo credits – Aakash Veer Singh (Bilaspur, Chattisgarh)

आसमान की विशाल तश्तरी में,

भानु की रमणीय आभा सजी है,

पर्णों का हरा जालीदार रूप ही, इस वन की शालीन छवि है,

जब बिखरती है ये आभा,

आसमान से उभरती हुई,

और पहुँचती है इस ज़मीन पर,

छनकर पर्णों के जाल से,

ओजस्वी किरणों के रूप में,

तब प्रज्वलित हो उठता है कण कण,

पावन कनक के समान |

ये धूप छाँव का अनूठा मेल ही,

जोड़ता है उस आसमान को इस ज़मीन से,

और ये वन साक्षी बनता है,

इस प्रेम प्रसंग का |

धूप : छाँव : प्रकृति

philosophy, Soulful

प्रेम

ये आकाश आधार है इस प्रदीप्त की चमक का,

और

ये प्रदीप्त, दुनिया के सामने अस्तित्व है इस आकाश का,

पूरक हैं एक दूजे के ये,

ये ही सत्य है,

ये ही तथ्य है,

ये ही प्रेम है |

प्रेम : आकाश : प्रदीप्ति

inspiration

माटी

प्रेम पनपता है प्रकृति में,

जब सौंधी मिट्टी कर देती है जीवंत,

उस सुप्त से बीज को,

और,

उजागर कर देती है प्रेम भाव,

जब खिलती है ये नन्ही कलियाँ,

और लेहलेहाती हैं भूरी डालियाँ,

इस प्रेम का जश्न मनाने के लिए |

प्रेम : बीज : जीवन

Soulful

स्पर्श

दूर इतना है वो,

मगर प्रबल है उसका अस्तित्व,

और

प्रभावशाली है उसकी ऊर्जा,

जो रोज़ छूकर हमें,

प्रज्वलित कर देती है,

कहती है ये लेहलहाती टहनियाँ,

चाहे हम अभिन्न अंग हो किसी ऊँचे वृक्ष का,

या फिर इस धरा पर बिखरे हों यूँही,

ये स्पर्श हमेशा हर्षित कर देता है,

हमारे कण कण को,

जैसे प्रेम हो कोई,

दो जुदा दिलों के बीच,

जो कभी मिल नहीं सकते,

मगर

फिर भी महसूस कर सकते हैं,

बड़ी ही गहराई से,

एक दूजे का स्पर्श,

सिर्फ़ अस्तित्व और ऊर्जा से |

स्पर्श : अस्तित्व : ऊर्जा