
वक़्त,
एक कलम की तरह,
ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर,
लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने,
लेकिन,
कुछ आसान सा नहीं नज़र आता,
इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़,
और ये जज़्बातों की लकीरें,
कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं,
क्योंकि रुख बदल देती उनका,
ये नबीना असूलों की हवा,
और तब्दील कर देती हैं,
हयात इस पाक इश्क़ की,
बस,
यूँही देखते देखते,
कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं,
और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ |
लेकिन झिलमिल आँखों की बूँदों से,
बयाँ कर ही जाती हैं,
वो दर्द-ए-दिल की कसक को भी,
जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे कभी ना लिख पाए |