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अहम् की अपूर्ण यात्रा
एक सुर्ख सिंदूरी एहसास लिए है ये रैना,
जैसे अतीत की स्थिर स्मृतियाँ,
अस्थायी सा जंग लिए हो कोई,
और वर्तमान के ये गतिशील जज़्बात,
पुलकित भाव उजागर कर रहें हो भीतर |
जैसे जैसे मेरी सतह निस्तेज होती गई,
आतंरिक चुभती विषकत्ता को हटाती हुई,
वैसे वैसे वो प्रकट करती गई,
एक परत कोमल निश्चयात्मकता की |
ये भंजन ही वास्तविक उन्मुक्ति है,
‘अहम्’ की, इस प्रतिबंधित जीवन की बेड़ियों से |
ये अवखंडन अब एक आनंदमयी अनुभव होने लगता है,
और पुर्ज़ा पुर्ज़ा यूँ बिखरना,
स्वीकृति भाव को उत्पन्न करता है,
जो ‘अहम्’ को सूत्र के उद्गम में,
विलीन होने के लिए,
प्रोत्साहित करता रहता है |
मगर कालचक्र का ये प्रभाव,
‘अहम्’ को दोबारा समावेश में लेता है,
भौतिकता को अनुभव करने के लिए,
पुनः किसी काल में जन्म लेने के लिए,
किसी और रूप और नाम के साथ,
एक नूतन अस्तित्व में,
जो फिर से बाँध देगा,
इस जीवन को,
एक सीमित अवधि के लिए,
भौतिकता के जटिल पंक में |
मगर हर बार ‘अहम्’ पहुँचेगा इस दायरे के सिरे पर,
अभिज्ञता के आयाम से दूर होकर,
एक अज्ञात मक़ाम में प्रवेश करके,
जो इस भौतिक अवधारणा के परे होगा,
पुनः वही सुर्ख सिंदूरी एहसास दिलाता हुआ,
जैसे इस रात्रि में हुआ है |
प्रदीप्ति