हर दिल की आरज़ू, हर मन की ज़ुस्तज़ू, है मोहब्बत | महताब जगाता है ये हर रात |

रात : मोहब्बत : जज़्बात
हर दिल की आरज़ू, हर मन की ज़ुस्तज़ू, है मोहब्बत | महताब जगाता है ये हर रात |
रात : मोहब्बत : जज़्बात
नूर की ख़्वाहिश किसे नहीं होती | हमें भी है – एक नज़्म इसी ख़्वाहिश के नाम |
उधर नूर उस मेहताब का,
छुपाता बदली का ये नक़ाब,
इधर दीदार की तलबगारी में,
रश्क़ करता ये मन,
नज़रों में ही बुन लेता ख़्वाब,
इसी चाह में,
कि मिल जाए कुछ राहत,
इस दिल-ए-बेकरारी को |
“कुछ सुकून तुम रख लो,
कुछ हमें बक्श दो, “
कहता हुआ ये मन,
दम भरता धीमें धीमें,
जब झिलमिल आँखें मूँद लेता,
तभी फ़िज़ा की एक शरारत,
मुकम्मल कर देती उस ख़्वाहिश को |
और,
उस माहेरु की एक झलक पाकर,
ये महदूद भी बेशुमार हो जाता |
©प्रदीप्ति
नूर: माहेरु: ख़्वाहिश