दर्शन, philosophy, Spiritual

नमी

सतह सुर्ख है,तृष्णा गहरी है,प्रेम का असीम समंदर है अन्दर,फिर भी ना जाने कैसी अजब कमी सी है |उठता है तूफ़ान इस कदर,हर पल फूटना चाहता हो जैसे,मगर ये अश्क़ बहते भी नहीं,दो बूँद नैनों में झलकती भी नहीं,जबकि श्वासों से लेकर देह तक इतनी नमी सी है |क्यूँ फैला है अनन्त तक,ये खालीपन ?ना अँधेरा है ना ही रोशनी,ना नज़र आता ऊपर ये आसमान,और ना ही महसूस होती नीचे कोई ज़मीन सी है |कुछ रुका भी नहीं,कुछ बहा भी नहीं,कुछ दिखा भी नहीं,कुछ छुपा भी नहीं,कोई आरज़ू भी नहीं,कोई शिकायत भी नहीं,ना ही बेबसी है,ना ही बेचैनी है,ना जाने कैसी रहस्यमयी एहसास है ये,कभी ना तृप्त होने वाली वीमोही प्यास है ये |

दर्शन, inspiration, philosophy

क्या?

क्या पँखुड़ी फूल से जुदा है?क्या कली को अपना कल पता है?क्या बहार पतझड़ से डरती है?क्या बंजर ज़मीन फूटने से कतरती है?क्या नदी ठहरना चाहती है?क्या सागर बहना को तरसता है?क्या आकाश सूर्य से रंग चुराता है?क्या सूर्य बादलों पे प्यार जताता है?क्या चाँद रोज़ बेनक़ाब होना चाहता है?क्या सूरज कुछ दिन विश्राम करना चाहता है?क्या हवा अपनी गति की मोहताज होती है?क्या बारिश की बूँदों में भी प्यास होती है?क्या रात को दिन से ईर्ष्या होती है?क्या शाम को अपने अस्तित्व की चिंता होती है?क्या फूलों को अपनी महक पे अभिमान होता है?क्या पर्वत को अपनी विशालता पे गर्व होता है?क्या सूखे फूलों को फिर से खिलने की इच्छा होता है?क्या टूटी लहरें फिर से उभरना चाहती हैं?क्या सुलगता लावा भी ठंडकता चाहता है?क्या बर्फ़ की चादर भी गर्माहट चाहती है?क्या कोयला हर बार हीरा बन पाता है?क्या टूटा कॉंच फिर से जुड़ पाता है?क्या दर्द को दवा की ज़रूरत होती है?क्या दुआ हर बार पुरी होती है?क्या ये उदासी इतनी ज़रूरी होती है?क्या ये ख़ुशी एक मजबूरी होती है?क्या ये अश्क़ कमज़ोरी होते हैं?क्या ये प्रेम यूँही सदैव रहता है?क्या एक दूजे से मिलना तय होता है?क्या ये रिश्ते अकेलेपन से कीमती हैं ?क्या ये अपने गैरों से क़रीब होते हैं?क्या पहचान अनजान होना चाहती है?क्या अनजान हमेशा के लिए जुड़ना चाहते हैं?क्या खोना जीवन का दस्तूर होता है?क्या पाना हमेशा स्वार्थ होता है?क्या है और क्या नहीं?क्यूँ है और क्यूँ नहीं?कब है और कब नहीं?इसका तो पता नहीं,मगर,ये सवाल यूँही उठते रहेंगे,कुछ का जवाब मिल जाएगा,कुछ यूँही रहस्य बनके रहेंगे |

क्या : रहस्य : सवाल

दर्शन, inspiration, philosophy, Soulful

रंग

© tulip_brook

रंग ज़िन्दगी के कुछ ऐसे हैं,

कुछ फीके, कुछ गाढ़े,

कुछ उथले, कुछ गहरे,

कुछ निर्मल, कुछ उग्र,

कुछ शान्त, कुछ चँचल,

कुछ खामोश,कुछ गूंजते,

कुछ अधूरे, कुछ पूरे |

हर रंग एक जज़्बात उजागर करता है,

एक एहसास से जुड़ जाता है,

कभी उम्मीद बन जाता है,

कभी सबक बन जाता है,

कभी ख़्वाब बन जाता है,

कभी याद बन जाता है,

कभी चाहत बन जाता है,

कभी नफ़रत बन जाता है |

कोई इसे धर्म से जोड़ देता है,

कोई इसे कर्म से जोड़ देता है,

कोई इसे जंग का जामा पहना देता है,

कोई इसे शान्ति का प्रतीक बना देता है,

कोई इसे विजय के स्तम्भ पर सजाता है,

कोई इसे शिकस्त के खंडर पर बैठाता है,

कोई इसे संकुचित दायरे में बाँध देता है,

कोई इसे असीमता में घोल देता है,

कोई इसे उत्सव के रूप में मनाता है,

कोई इसे शोक में जताता है |

रंग एक कविता भी है,

रंग एक कहानी भी,

रंग एक आवाज़ भी है,

रंग एक मौन भी,

रंग शब्द भी है,

रंग निशब्द भी,

रंग एक तथ्य भी है,

रंग एक रहस्य भी |

रंग : ज़िन्दगी : सोच

दर्शन, L, philosophy, Soulful, Spiritual

निष्क्रिय

© tulip_brook

जैसे प्रवाह, वृद्धि के अंतर्गत,

विराजमान एक स्थिर रहस्य,

जैसे ध्वनि, कथन के भीतर,

विद्यमान एक गूढ़ मौन,

वैसे ही नश्वर देह के अन्दर,

स्तिथ एक मर्म अमृत |

इस जीवन में -जो प्रत्यक्ष है,

वो पूर्ण सत्य नहीं,

और

जो परोक्ष है,

वो अर्द्ध मिथ्या नहीं |

जीवन : प्रत्यक्ष : परोक्ष

दर्शन, inspiration, philosophy

प्रतिबिम्ब

© Aakash Veer Singh Photography

जब बना ये जलाशय एक दर्पण,

इस अनछुए आसमान का,

तब खुले अनकहे राज़ कई,

और इन बादलों ने बयाँ किए,

अनसुने उनसुलझे रहस्य कई,

जैसे सम्मुख आ गया हो अतीत,

वर्तमान का नीला दामन ओढ़े,

और बैठा हो तैयार इस इंतज़ार में,

कि कोई तो उजागर करे,

इस प्रच्छन्न जज़्बात को,

गहरे काले अंधकार जैसा,

जिसे समझने का हौसला,

सिर्फ़ प्रेम में होता है,

जैसा हुआ है,

इस जलाशय को,

उस आकाश से |

प्रतिबिम्ब : जलशय : आसमान

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नीर

Source- Aakash Veer Singh Photography

इस नीर के रूप निराले हैं,

कभी बन जाता है ये एक बलखाती नदिया,

तो कभी एक शालीन सा तालाब,

कभी बन जाता है ये एक मदमस्त झरना,

तो कभी समुद्र में उठता हुआ कोई सैलाब,

कभी बन जाता है ये ऊष्ण का धुँदला धुआँ,

तो कभी सावन की घनघोर घटा,

कभी गिरता है ये बदली से यूँ,

टप टप इस धरा पर,

तो कभी ठहरता है दमकते मोती सा,

सर्द सुबह में खिले किसी पँखुरी पर,

कभी बन जाता है ये तृष्णा में ओक,

तो कभी गदगद होते हुए ह्रदय का शोक,

झलक जाता है इन नैनों के सिरों से,

इस तरह जैसे हो गुमसुम सी धरा कोई,

जिसका स्रोत और गंतव्य दोनों ही,

एक गहरा उनसुलझा रहस्य हो कोई |

नीर : स्रोत : गंतव्य