
प्रभात की धुंध भरी बेला में,
नंगे पैर ही चल पड़ी वो,
वन के काँटेदार रास्तों पर,
कुछ काठ के टुकड़े लाने |
सिर्फ़ मंढा हुआ आटा,
भूख नहीं मिटा सकता,
ताप अनिवार्य है,
इनको भोज्य बनाने के लिए |
ईंधन से ही वाहन चलता है,
और ये जीवन भी |
सुलगते काठ के ऊष्ण से,
जब ये लौह तवा तपता है,
और सिकती है इस पर मद्धम मद्धम,
रोटी कठिन परिश्रम की,
पड़ते हैं जब छाले,
इन कोमल हथेली पर,
और बहता है पानी,
इन जलती आँखों से,
पड़ जाती है हज़ारों सिल्वटे,
इस सूती साड़ी पर,
और चढ़ जाती है काली परत,
इस श्वेत काया पर,
तब बनता है भोज्य ये,
मंढा हुआ आटा,
और ये जीवन भी |
ताप : जीवन : रोटी