
दीए ने बाती से,
कुछ कहना चाहा |
समय सही थी,
और जज़्बात भी |
दिया बोला,
कुछ व्याकुल होकर –
“इस सुनी चौखट,
और अँधेरी गली में,
अनजान शहर में,
और यहाँ बसने वालों की
बेरुखी में |”
ये सुनते ही बाती ने दिए को रोका और बोली,
कुछ अप्रभावित सी –
” आज हूँ मैं,
कल नहीं,
इस लौ के साथ,
ख़तम हो जाऊँगी,
ना सुनी चौखट,
ना अँधेरी गली,
और ना ही इस अनजान शहर में,
बसने वालों की बेरुखी,
से मेरा कोई वास्ता है | “
दिया बोला,
एक गहरी कसक के साथ –
” सही कहा तुमने,
जिसकी परेशानी वो जाने,
तुम जलकर ख़ाक हो जाऊगी,
एक लौ मैं सिमटी है,
तुम्हारी ये ज़िन्दगी,
और उतनी ही सिमटी सोच है |”
इस पर बाती बोली,
क्रोधित होकर –
” हाँ ! सही कहा,
ये एक लौ की ज़िन्दगी मेरी,
सब कुछ रौशन
तो करके जाती है,
लेती नहीं कुछ भी ,
और बस ख़त्म हो जाती है |
तुम किस काम के हो?
ज़र्र सा फ़िसले,
और चूर चूर |
वरना यूँही व्यर्थ पड़े हुए,
एक गुमनाम ज़िन्दगी लिए |
ज़िन्दगी हो कम सही,
कर्मण्य हो मगर | “
अब दिया बोला,
मुस्कुराते हुए –
” ये लौ की ख़ाक,
मुझ पर भी रह जाएगी,
किसीके नैनों का
काजल बनेने के लिए,
कुछ खो कर ही
कुछ पाते हो,
दस्तूर ज़िन्दगी का
इस तरह निभाते हो,
कौन कितना जिया
इससे क्या वास्ता |
सार्थक जीवन वही,
जहाँ ग्लानि और पीड़ा
अपने से ज़्यादा,
दूजे की,
महसूस की जाए,
और
ये स्वीकार करो,
कि
जीवन ये भी है और वो भी,
अतुल्य है, अमूल्य है,
तुम्हारा भी और मेरा भी |”
ये सुनकर,
बाती और प्रज्वलित हो उठी,
और बोली,
स्नेह से –
“आओ मेरे संग,
ओ ! माटी का प्यारे से रूप,
मैं भी उसी धरा का एक अंश हूँ,
और
वहीँ फिर मिल जाना है,
तुम्हें भी और मुझे भी,
ये आखरी मुलाकात नहीं,
मिलन की बेला है,
आओ संग मेरे,
ख़ाक बनकर तुमपे लिपट जाँऊ,
सफ़ल हो जाएगा मेरा ज़िन्दगी का ये सफ़र |”
और यूँ झिलमिलाती वो लौ,
विलीन हो गई,
दिए की काया पर |
असीम प्रेम इसे ही कहते हैं |