philosophy, poetry, Soulful, Spiritual

वेदना

वेदना की आवृत्ति जब जब उजागर होती गई,

तब तब एक गूढ़ शक्ति उसे तिरोहित करती गई,

मानो जैसे इस अपरिमय अनन्त के,

अस्तित्वहीन सिरों से मुद्रित होती गई,

निदोल सा ये जीवन होता गया,

ह्रदय जितना इसका अवशोषण करता गया,

अभिव्यक्ति उतनी ही तीव्र होती गई,

दोनों में द्वन्द्व बढ़ता ही गया,

और यूँही वेदना की आवृत्ति,

अनुनादि स्तर पर पहुँचती गई,

एक देहरी जहाँ पर आकर,

चयन करना अनिवार्य होता गया,

यहाँ –

आवेग के क्षण क्षीण होते गए,

रिक्त अवस्था सा वक़्त कोंपल होता गया,

तिमिर और दीप्त संयुक्त होते गए,

स्त्रोत और गंतव्य विलीन होते गए |

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वक़्त

वक़्त पानी सा बहता गया,
जीवन की नाव चलती गयी,
कई छोर छूटते गए,
किनारे भी धुंदले होते गए,
और अब ये मंज़र है,
कि गहराई रास आने लगी है,
अब ना किसी छोर की तमन्ना,
ना ही किसी किनारे की आस बची है |

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वक़्त

वक़्त,
एक कलम की तरह,
ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर,
लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने,
लेकिन,
कुछ आसान सा नहीं नज़र आता,
इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़,
और ये जज़्बातों की लकीरें,
कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं,
क्योंकि रुख बदल देती उनका,
ये नबीना असूलों की हवा,
और तब्दील कर देती हैं,
हयात इस पाक इश्क़ की,
बस,
यूँही देखते देखते,
कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं,
और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ |
लेकिन झिलमिल आँखों की बूँदों से,
बयाँ कर ही जाती हैं,
वो दर्द-ए-दिल की कसक को भी,
जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे कभी ना लिख पाए |

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अद्भुत नज़ारा

Source : Aakash Veer Singh Photography

तिरोहित हो रहा है हौले हौले,

शिखर के शीर्ष पर कान्तिमान,

कनक का ये रमणीय आभूषण,

हो रहा है क्षण क्षण परिवर्तित,

इसका रंग, प्रकाश, और आकार |
इसके आलेख का सिरा,

धीरे धीरे छोड़ रहा है,

गगन की कोमल ओढ़नी पर,

पीले नारंगी रंग का मिश्रण,

और

बादलों की विषम आकृति में,

यूँ मृदुलता से घुल रहा है,

वक़्त की धीमी आँच पे,

चाशनी सा मदहोश करने वाला,

एक अद्भुत नज़ारा बनाने |

नज़ारा : प्रकृति : सुकून

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उम्र

Credits : Aakash Veer Singh Photography

नश्वर होना यही है,

माप लेते हो अस्तित्व को,

उस प्रणाली के दायरे में,

जो इन्सानों द्वारा बनाई हुई,

इन्सानों के लिए |

जैसे हम मनाते हैं,

जन्मदिन और सालगिराह,

और पकते हैं ये रिश्ते,

उम्र और वक़्त गिनकर,

वैसे ही बढ़ती है ये ज़िन्दगी,

दो संख्याओं के बीच,

और तय करती है ये सफ़र,

जो बदलता है पल पल,

एक संख्या से,

दूसरी संख्या तक |

उम्र : संख्या : जीवन

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याद

इश्क़ मुश्किल ना था कभी,

हालात थे,

किस्मत भी बड़ी पेचीदा निकली,

इंसान से इंसान की मुलाक़ात तो करा देती है,

जज़्बातों की लौ भी जला देती है,

मगर ना जाने क्यूँ,

एक रोज़

खुदगर्ज़ी की आँधी से सब बुझा जाती है,

वक़्त और तक़दीर के खेल के पासे ही तो हैं सब,

जो दो अनजान इस कदर मिल कर फिर अनजान बन जाते हैं,

हार दोनों की ही होती है इस खेल में,

बस फिर शुरुआत होती है दर्द को बयाँ करने की,

और यूँही मोहब्बत के कई मायूस फ़साने बन जाते हैं,

और दर्द के तड़पते तराने गुनगुनाये जाते हैं,

बस कोई नाम निगार बन जाता है, तो कोई नगमा परवाज़,

दर्द को हसीन बनाना भी एक हुनर है,

बस ये ही मान लेता है दिल,

कि तेरी मोहब्बत तो ना मिला,तेरा दिया दर्द ही सही,

तू सादिक़ ना बन सका,

कोई गिला नहीं,

तू बेईमान ही सही,

किसी नाम से तो तुझे याद रखेंगे,

खुदा से बस ये ही फ़रियाद करेंगे,

कि शुक्रिया,

मोहब्बत ना बक्शी हमें,

बेवफाई की सौगात ही सही |

याद : मोहब्बत : जज़्बात

poetry

मरासिम

उसूल ज़रूरी हैँ या जज़्बात? इसी कश्मक़श को ज़ाहिर करने की कोशिश की है एक नज़्म से |


वक़्त,

वक़्त,
एक कलम की तरह,

ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर,

लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने,

लेकिन,

कुछ आसान सा नहीं नज़र आता,

इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़,

कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं,

जज़्बातों की ये लकीरें भी, 

क्योंकि रुख बदल देती है उनका,

ये नबीना असूलों की हवा,

और तब्दील कर देती हैं, 

हयात इस पाक इश्क़ की |
बस कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं,

और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ भी |

मगर फिर भी, 

ये झिलमिल आँखें बयाँ कर जाती हैं, 

 दर्द-ए-दिल की उस कसक को भी,

जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे ना लिख पाए कभी |

वक़्त : उसूल : जज़्बात