सावन में जब जब मेघ बरसते हैँ,
नैनों के समंदर में आकर बसते हैँ,
वो अधूरे से ख्वाब,
जो अब लहरों की तरह उचकते हैँ,
ज़िन्दगी की नाव इन्हीं पर चलती है,
कभी हिलती, कभी उछलती,
कभी झूलती, कभी सँभलती,
मंज़िल की चाह में हर तूफ़ान से लड़ती |
सावन
सावन में जब जब मेघ बरसते हैँ,
नैनों के समंदर में आकर बसते हैँ,
वो अधूरे से ख्वाब,
जो अब लहरों की तरह उचकते हैँ,
ज़िन्दगी की नाव इन्हीं पर चलती है,
कभी हिलती, कभी उछलती,
कभी झूलती, कभी सँभलती,
मंज़िल की चाह में हर तूफ़ान से लड़ती |
सावन
मुझे मोती की माला की चाह नहीं,
तू लहरों के चूमे हुए,
रेत में लिपटे हुए,
कुछ कोरे सीपी ले आना,
उन्हें पिरोकर एक हार बना लूँगी |
मुझे सोने के कंगन नहीं लुभाते कभी,
तू शहर के पुराने बाज़ार से,
कॉंच की रंग बिरंगी चूड़ियाँ ले आना |
मुझे रेशमी साड़ी नहीं पहननी,
तू सतरंगी सूती साड़ी ले आना |
मुझे चाँदी की पायल नहीं छनकनी,
तू दरगाह से मन्नत का धागा ले आना |
मुझे पकवान मिठाई नहीं खाने,
तू सड़क किनारे इन झाड़ियों से तोड़कर
एक टोकरी मीठे पके बेर ले आना |
मुझे काँसे के बर्तन नहीं खरीदने,
तू पड़ोस के कुम्हार से,
मिट्टी के कुछ बर्तन ले आना |
मुझे मेहेंगे इत्तर नहीं छिड़कने,
तू इस आँगन में मेहकते हुए,
मोगरा रजनीगंधा के पेड़ लगाना,
भोर की बेला में,
कुछ कलियाँ तोड़कर,
इन केशों को सजा देना |
मुझे इस घर को,
कीमती चीज़ों से नहीं सजाना,
तू दशहरे के मेले से,
लकड़ी की छोटी बड़ी आकृति ले आना |
मुझे कहीँ सैर पे दूर मत ले जाना,
पूनम की चाँदनी रात में,
झील में नौका विहार करा लाना,
सावन में छतरी ना सही,
शाम को बारिश में भीगते हुए,
निम्बू मिर्ची रचा हुआ,
कोयले पे सिका हुआ,
भुट्टा खिला आना,
मई की सुलगती गर्मी में,
गली में घूमते हुए,
उस बूढ़े फेरीवाले से,
बर्फ़ का गोला दिला देना,
दिसंबर की ठिठुरती ठंड में,
पुराने किले के बाहर बैठे,
उस छोटे से तपरीवाले से,
एक प्याला मसाला चाय पीला लाना |
मुझे मोटर गाड़ी में नहीं बैठना,
तू साइकल में बैठाकर,
मुझे खेत खलियान की सैर कराना |
मुझे गद्देदार शय्या में नहीं सोना,
खुली छत पर चटाई बिछाकर,
सितारों भरी रात में,
पूर्वय्या के मंद स्पर्श के साथ,
सुकून की नीन्द सुला देना |
बस यूँही उम्र भर साथ रहकर,
हर पल को ख़ुशनुमा,
और यादगार बना देना |
साथी : संगिनी : विवाह
बेला मिलन की आ गई,
रुत सुहानी सी छा गई,
श्रृंगार करुँगी आज मैं,
मीत से मिलूँगी आज मैं,
रेन की गहरी काली स्याही से,
नैनों का काजल बनाऊँगी मैं,
सूर्यास्त की चमकती लालिमा से,
फीके होठों में रंग लाऊँगी मैं,
सावन के तृप्त पत्तों से,
हरी हरी चूड़ियाँ बनाऊँगी मैं,
आसमान में दमकते सितारों से,
ये ओढ़नी सजाऊँगी मैं,
गुलाब के मेहकते रस से,
इस देह को सुगन्धित बनाऊँगी मैं,
मोगरे की कच्ची कलियों से,
केशों का गजरा बनाऊँगी मैं,
मेहंदी के ताज़े पत्तों को,
इन हथेलियों को रचाऊँगी मैं,
चाँद के निरर्भ नूर से,
पैरों की पैनजनिया बनाऊँगी मैं,
जल की सुनहरी तरंग से,
नसीका का छल्ला बनाऊँगी मैं,
तपती कनक सी इस भूमि से,
कान के झुमके बनाऊँगी मैं,
काली घटा के सिरे की रोशनी से,
मांग का लशकारा बनाऊँगी मैं,
फिर बैठुँगी समक्ष इस अग्नि के,
प्रीत की लौ जलाऊँगी मैं |
मगर ये श्रृंगार अधूरा है,
इस पूर्ण कैसे बनाऊँगी मैं?
अब बारी है मीत की,
इस श्रृंगार पूर्ण बनाने की,
परिणय के प्रतिक को,
मेरी कोरी मांग में सजाने की |
ह्रदय के रक्त सा ये सिन्दूर,
जब भरेगा मीत इस मांग में,
हया से पलके झुकाऊँगी मैं |
फिर कहेगा ये मन तुमसे –
“जीकर इस कुमकुम भाग्य को,
तुम्हारी संगिनी कहलाऊँगी मैं |”
सिन्दूर : परिणय : संगिनी
कैसे करें ऐतबार इस इश्क़ पर,
यहाँ तो मेहताब भी,
हर रात अपना रूप बदलता है,
कैसे भरें साँसें सुकून की,
यहाँ तो बिन मौसम भी,
बादल तड़पकर बरसता है,
कैसे लाएँ आस इस दिल में,
यहाँ तो ठिठुरती सर्दी में भी,
पेशानी से टप टप पसीना निकलता है,
कैसे मनाए इस रूठे मन को,
यहाँ तो बसंत की बेला में भी,
बस आलूदगी का धुँआ चलता है,
कैसे माने की नसीब अच्छा है हमारा,
यहाँ तो सितारों भरी खूबसूरत रात में भी,
सिर्फ़ शहर की नक़ली रोशनी का नज़ारा मिलता है,
कैसे लाएँ इन आँखों में ठंडक,
यहाँ तो शान्त पानी के नीचे भी बवंडर पलता है,
कैसे दे इस रुह को तस्सली,
यहाँ तो मज़बूत चट्टानों में भी,
अन्दर ही अन्दर खोकलापन पनपता है |
उलझन : ज़िन्दगी : सोच