कैसे करें ऐतबार इस इश्क़ पर,
यहाँ तो मेहताब भी,
हर रात अपना रूप बदलता है,
कैसे भरें साँसें सुकून की,
यहाँ तो बिन मौसम भी,
बादल तड़पकर बरसता है,
कैसे लाएँ आस इस दिल में,
यहाँ तो ठिठुरती सर्दी में भी,
पेशानी से टप टप पसीना निकलता है,
कैसे मनाए इस रूठे मन को,
यहाँ तो बसंत की बेला में भी,
बस आलूदगी का धुँआ चलता है,
कैसे माने की नसीब अच्छा है हमारा,
यहाँ तो सितारों भरी खूबसूरत रात में भी,
सिर्फ़ शहर की नक़ली रोशनी का नज़ारा मिलता है,
कैसे लाएँ इन आँखों में ठंडक,
यहाँ तो शान्त पानी के नीचे भी बवंडर पलता है,
कैसे दे इस रुह को तस्सली,
यहाँ तो मज़बूत चट्टानों में भी,
अन्दर ही अन्दर खोकलापन पनपता है |
उलझन : ज़िन्दगी : सोच