अज्ञानता भावहीन है,
ज्ञात होना भावपूर्ण,
प्रथम हैं इस श्रेणी में,
भाव शंका के, भय के,
एवं आश्चर्य के |
बढ़ती तृष्णा भी है,
और असमंजस भी |
अगर असमंजस विजयी हुई,
तो भय प्रबल होता जाएगा,
अगर तृष्णा विजयी हो जाए,
तो फिर ये भाव परिवर्तित होते हैं,
स्पष्टता में, निर्भीकता में,
और धीरे धीरे व्यक्ति,
संभाव की स्तिथि तक पहुँच जाता है,
ये सफ़र ज्ञात से बोध का है |
Tag: सोच
आभास

ठहरे से इस पल में,
सदियों का प्रवाह शामिल है,
सूने से इस परिवेश में भी,
विगत हलचल ओझल है,
टूटी सी इन दरारों में से,
बुरादे की तरह झड़ते हैं,
कई दस्ताँनें पुरानी,
परत दर परत ये ज़मीन,
छुपाए हुए है राज़ कई,
जहाँ आज हम खड़े हैं,
वहाँ कल दौड़ा होगा,
इस ख़ामोश प्रांगण में,
गूँज है बीते ज़माने की,
इतिहास नज़र आ ही जाता है,
महसूस हो जाती है भूतकाल भी,
बस ज़रूरत है ठहरने की,
कुछ देर सब कुछ भुलाकर,
उस तथ्य को
ठहरे से इस पल में,
सदियों का प्रवाह शामिल है,
सूने से इस परिवेश में भी,
विगत हलचल ओझल है,
टूटी सी इन दरारों में से,
बुरादे की तरह झड़ते हैं,
कई दस्ताँनें पुरानी,
परत दर परत ये ज़मीन,
छुपाए हुए है राज़ कई,
जहाँ आज हम खड़े हैं,
वहाँ कल दौड़ा होगा,
इस ख़ामोश प्रांगण में,
गूँज है बीते ज़माने की,
इतिहास नज़र आ ही जाता है,
महसूस हो जाती है भूतकाल भी,
बस ज़रूरत है ठहरने की,
कुछ देर सब कुछ भुलाकर,
उस तथ्य का बोध करने की,
जो गुप्त ही रह जाता है,
उन लोगों के लिए,
जो सदैव वक़्त के प्रतिकूल,
यूँही भागते रहते हैं,
ना ही पल जीते हैं,
ना ही स्मृतियाँ बनाते हैं |
आभास : इतिहास : ठहराव
अपनी ज़मीन से जुड़ना
जब पहुँची अपने गाँव, तब जाना अपने अस्तित्व को, बड़े ही क़रीब से | और बैठी हुई मैं, घर के इस आँगन में, सोचती रही कुछ यूँ |

ये आँगन टूटा फूटा सा,
और ये धरातल की दरारें, बयाँ करती हैँ दास्तान,
कुछ पुरानी यादों की, ग्लानि और अभाव से पूर्ण,
ये दीवारों के उतरता रंग,
एक व्याख्या प्रकट करते हैँ,
अधूरी ख्वाहिशें के, बिखरने की,
उलझे रिश्तों के, जकड़ने की,
कुछ खामोशियों की, कुछ सिसकियों की,
जो आज भी सुनाई देती हैँ,
ये ही आभा है, अतीत की, जो प्रत्यक्ष है, मगर समीप नहीं|
है नेत्र की सीमा से परे, मगर जाती हैँ, अंतर्मन के दायरे की ओर,
और छू जाती हैँ, उस सूक्ष्म कण को,
जो ओझल सा था, मगर असीम सा, अस्तित्व लिए हुए,
अतीत का, वर्तमान में, भविष्य तक |
ज़मीन : आँगन : अस्तित्व
कॉंच

कॉंच
रेत सी फ़िसलती ज़िंदगी,
तपती पिघलती वक़्त की आतिष में,
बन जाती है सूरत कॉंच की,
खनकती चमकती है हयात उसकी,
लेकिन ज़रा सी ग़म की आंधी बिखेर देती ह,
तब्दील कर देती है शक्शियत उसकी,
वक़्त की ये ही ख़ासियत है शायद,हस्ती बनाती भी है और मिटाती भी।
इस देश के और शहरों की तरह ही है ये शहर भी |उत्तरप्रदेश के दक्षिणी पश्चिम में, दिल्ली से 4 घंटे की दूरी पर स्तिथ है फ़िरोज़ाबाद | इसे सुहाग नगरी के नाम से भी जाना जाता है | देशभर में विभ्भिन रंगों की कॉंच की चूड़ियाँ यहीं से बन कर जाती हैं | हर भारतीय नारी के सुहाग की निशानी और श्रृंगार का अभिन्नरूप है ये कॉंच की चूड़ियाँ | मगर, जहाँ ये किसी के सौंदर्य को निखारती और चमकाती हैं,वहीँ दूसरी ओर किसी की ज़िंदगी को उजाड़ती और बुझाती हैं | भारत की आबादी और गरीबी से हर शख्स वाक़िफ़ है | दो जून की रोटी के लिए हर रोज़ ज़िंदगी को दाँव पे लगाना पड़ता है।
ऐसी ही ज़िंदगी गुज़ार रहा था असीम , 12 साल का एक लड़का जो अपनी विधवा माँ के साथ फ़िरोज़ाबाद की एक कॉंच की चूड़ी बनाने वालेकारखाने में काम करता था | तंग गलियाँ , ना धूप ना हवा, बस धुआँ ही धुआँ , ये ही थी उस जगह की कड़वी हक़ीक़त | असीम रोज़ सवेरे नमाज़ अदा करके और मदरसे में तालीम हासिल करके कारखाने में 8 घंटे की मज़दूर करता था | माथे पे शिकन, हाथों में चोट के घाव,पैरों में बवाईयाँ, कपड़ों पर सूत की चादर, ये ही उसकी पहचान बन गई थी | यूँ ही दिन गुज़रते गए, और अकेली माँ का साथ भी कुछ दिन का ही था | पिता के गुज़र जाने और बहन के खो जाने के बाद , उसकी ज़िंदगी में बस एक माँ ही थी |
कारखाने के काम से ज़्यादा असीम का रुझान धीरे धीरे शायरी और नज़्मों में होने लगा | मदरसे के उलेमा ने इस हुनर को पहचाना, और रोज़ाना उसे कुछ लिखने को देते |दूसरे दिन उसे सुनते और सुधारते | असीम भी बड़ी ईमानदारी और उत्साह से, काम के बाद रोज़ , तालाब के किनारे बैठके, कुछ ना कुछ लिखने लगा | बस ये ही एक ख़ुशी थी उसकी ज़िंदगी में | कभी कभी काम पर ना जाकर, उलेमा की दी हुई किताबों को पढ़ता रहता दिन भर | बाकी बच्चे तो काम के बाद खेलते, या हुल्लड़ मस्ती करते, मगर वो सिर्फ पढ़ता,लिखता या सोचता | अनपढ़ माँ कभी नहीं समझ पाती थी उसका ये शौक, और फटकारते हुए कहती उससे,“साहुकार ने आज रोज़ी काट ली, अब हम खाएँगे क्या, ये नज़्म ” | तो उस पर असीम जवाब देता, ” हाँ माँ! ये नज़्म ही ज़रिया बनेगी हमारी भूक मिटाने की ” | माँ माथा पीटते हुए वहाँ से चली जाती | और असीम अपनी नज़्मों की ख़ुशनुमा दुनिया में खो जाता |
मगर तकदीर को कुछ और ही मंज़ूर था | एक दिन उसकी माँ की हालत बहुत खराब हो गई | सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया तो पता चला की टी. बी. है | बचने की गुंजाइश काफ़ी कम थी | उसने निजी दवाख़ाने में दस्तक दी, मगर सबने भगा दिया ये कह कर की बिना पैसे जमा किए इलाज नहीं हो सकता | असीम यूँ ही माँ को लेकर दर दर भटकता रहा कई दिन, एक टूटे से ठेले पर | एक दिन अस्पताल के रास्ते जाते हुए ही ही माँ ने दम तोड़ दिया, और इस दुनिया से रुक्सत हो गई | असीम टूट गया और आसमान की ओर देखकर सोचने लगा –
गरीबी और बीमारी बड़ी वफ़ा निभाते हैं,
ख़फ़ा तो ज़िंदगी ही लगती है,
जब रहती है तब भी,
और जब नहीं रहती तब भी |
असीम ने कारखाने का काम छोड़ दिया,और दरगाह के बाहर फूलों की चादर बनाने का काम करने लगा | खाना खैरात में जो नहीं खाना था उसे | मगर पढ़ाई ज़ारी रही और वक़्त के साथ मेहनत रंग लाई | असीम को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उर्दू की तालीम लेने के लिए दाखिला मिल गया, वो भी सरकारी खर्चे पर | ज़िंदगी अब बदलने वाली थी |
वाहद हुसैन नाम के एक प्रोफेसर ने असीम के हुनर को पहचाना और उसे किताब लिखने को कहा | साथ ही उसे किताब से संबंधित हर प्रकार की मदद का भी आश्वासन दिया | असीम की किताब छपी और रात -ओ -रात बिक भी गई | और भी एडिशन्स छपे, नए संपादकों नेअसीम को एक से बढ़कर एक ऑफर दिए | असीम की प्रसिद्धि देश भर में बढ़ने लगी और वो मुशायरों और कवि सम्मेलनों में जाने लगा | रेडियो और अख़बार में भी उसके इंटरव्यू आने लगे |
विद्यार्थियों और नए लेखकों के लिए असीम रोल मॉडल बन गए थे | कई साल बीत गए, असीम ने अपनी कॉलेज की साथी रुकसाना से निकाह कर लिया | असीम बड़ी ही खुशहाल ज़िंदगी बिता रहा था | मगर एक दिन, वो मस्जिद से नमाज़ अदा करने के बाद अपने बच्चों के साथ घर लौटते वक़्त कुछ देखकर विचलित हो उठा | उसे अपना बचपन याद आ गया जिसे वो कब का पीछे छोड़ चूका था |
वो सारी रात सो ना सका | उसने सुबह ही फ़िरोज़ाबाद की ट्रेन पकड़ी और उसी जगह गया जहाँ वो बचपन में रहा करता था | आज भी इतने सालों बाद कारखाने में बच्चों की हालत देख कर वो अंदर से फिर टूट सा गया | उसने एक एन.जी. ओ. खोलने की ठानी जहाँ ऐसे बच्चों को आसरा दिया जाएगा | और उनके माँ बाप का दवाख़ाने में मुफ़्त इलाज़ किया जाएगा | एन. जी. ओ. का नाम रखा गया – “शमशाद आसरा “ और “नर्गिस दवाखाना”, अपनी माँ और बहन के नाम पर |
असीम की प्रसिद्धि की वजह से और लोग जुड़ते गए और कई बच्चों का जीवन सुधरता गया | मीडिया ने असीम के इस नेक काम को खूब सराहा | सरकार ने भी सहायता दी इस मुहिम को आगे बढ़ाने में | मगर आज भी असीम जैसे लाखों बच्चे रोज़ कहीं ना कहीं किसी ना किसी जगह बाल मज़दूरी करते हुए अपना बचपन और ज़िंदगी खो रहे हैं, और कम उम्र में अपने माँ बाप को भी | हमें और असीम चाहिए , क्या आपके अंदर है कोई असीम ?
आज असीम एन. जी. ओ. के बाहर खड़े होकर, अपनी माँ और अपने बचपन को याद करके , अपने बीवी बच्चों से सब बयान करते हुए कुछ यूँ गदगद हो जाता है –
कॉंच सी ही तो है ये ज़िंदगी,
मगर इसे संभालना होगा,
वक़्त और तक़दीर की आंधी से,
तुम और मैं की रंजिश में,
हम का वजूद नहीं रहता |
आओ, हम का वजूद बनाएँ,
ज़िंदगी से ज़िंदगी बनाएँ |
कॉंच : ज़िन्दगी : सीख
https://anchor.fm/tulipbrook/episodes/ep-e12dalt Continue reading “कॉंच”
दिया और बाती

दीए ने बाती से,
कुछ कहना चाहा |
समय सही थी,
और जज़्बात भी |
दिया बोला,
कुछ व्याकुल होकर –
“इस सुनी चौखट,
और अँधेरी गली में,
अनजान शहर में,
और यहाँ बसने वालों की
बेरुखी में |”
ये सुनते ही बाती ने दिए को रोका और बोली,
कुछ अप्रभावित सी –
” आज हूँ मैं,
कल नहीं,
इस लौ के साथ,
ख़तम हो जाऊँगी,
ना सुनी चौखट,
ना अँधेरी गली,
और ना ही इस अनजान शहर में,
बसने वालों की बेरुखी,
से मेरा कोई वास्ता है | “
दिया बोला,
एक गहरी कसक के साथ –
” सही कहा तुमने,
जिसकी परेशानी वो जाने,
तुम जलकर ख़ाक हो जाऊगी,
एक लौ मैं सिमटी है,
तुम्हारी ये ज़िन्दगी,
और उतनी ही सिमटी सोच है |”
इस पर बाती बोली,
क्रोधित होकर –
” हाँ ! सही कहा,
ये एक लौ की ज़िन्दगी मेरी,
सब कुछ रौशन
तो करके जाती है,
लेती नहीं कुछ भी ,
और बस ख़त्म हो जाती है |
तुम किस काम के हो?
ज़र्र सा फ़िसले,
और चूर चूर |
वरना यूँही व्यर्थ पड़े हुए,
एक गुमनाम ज़िन्दगी लिए |
ज़िन्दगी हो कम सही,
कर्मण्य हो मगर | “
अब दिया बोला,
मुस्कुराते हुए –
” ये लौ की ख़ाक,
मुझ पर भी रह जाएगी,
किसीके नैनों का
काजल बनेने के लिए,
कुछ खो कर ही
कुछ पाते हो,
दस्तूर ज़िन्दगी का
इस तरह निभाते हो,
कौन कितना जिया
इससे क्या वास्ता |
सार्थक जीवन वही,
जहाँ ग्लानि और पीड़ा
अपने से ज़्यादा,
दूजे की,
महसूस की जाए,
और
ये स्वीकार करो,
कि
जीवन ये भी है और वो भी,
अतुल्य है, अमूल्य है,
तुम्हारा भी और मेरा भी |”
ये सुनकर,
बाती और प्रज्वलित हो उठी,
और बोली,
स्नेह से –
“आओ मेरे संग,
ओ ! माटी का प्यारे से रूप,
मैं भी उसी धरा का एक अंश हूँ,
और
वहीँ फिर मिल जाना है,
तुम्हें भी और मुझे भी,
ये आखरी मुलाकात नहीं,
मिलन की बेला है,
आओ संग मेरे,
ख़ाक बनकर तुमपे लिपट जाँऊ,
सफ़ल हो जाएगा मेरा ज़िन्दगी का ये सफ़र |”
और यूँ झिलमिलाती वो लौ,
विलीन हो गई,
दिए की काया पर |
असीम प्रेम इसे ही कहते हैं |
दिया : बाती : प्रेम
सोच का शोधन – प्रथम कड़ी
भूमिका
सच्चे लोग जब निर्माण करते हैँ, किसी भी प्रकार का ही क्यों ना हो, बड़ी ही मासूमियत से बिना किसी आकांक्षा के, निरंतर जुटे रहते हैँ वो |फिर एक दिन एक बुरा प्राणी- झूठ, लालसा, ईर्ष्या से भरे हुए व्यक्तित्व वाला, एक पल में उसका विनाश कर देता है |
परिणाम
हताशा, पीड़ा? नहीं, बिलकुल भी नहीं |
सार
बुराई तबाही मचा सकती है, एक झटके में सब ख़तम कर सकती है, आपकी बनायी हुई रचना या कला को नष्ट कर सकती है, मगर अच्छाई नहीं छीन सकती आपसे, ना ही आपकी कला छीन सकती है |
प्रेरक भाव
कला के भौतिक पतन से, कला का कभी अन्त नहीं होगा, बल्कि एक नई शक्ति के साथ, फिर से एक निर्माण होगा, कला का उज्ज्वलित उदय होगा, कलाकार का भव्य उत्थान होगा |
©प्रदीप्ति