वो
फ़लक –
जो कभी हासिल ना हो सका,
मगर ख्वाहिशों की फ़ेहरिस्त में,
सबसे आगे रहा हमेशा |
और ये ज़मीन –
जो हमेशा हमारी ही रही,
मगर हमारे साथ के लिए,
रज़ा मंदी का इंतज़ार करती रही |
इंसान को हमेशा,
कद्र और फ़िक्र,
नाक़ाबिल – ए – रसाई तोर प्यार की ही होती है |

वो
फ़लक –
जो कभी हासिल ना हो सका,
मगर ख्वाहिशों की फ़ेहरिस्त में,
सबसे आगे रहा हमेशा |
और ये ज़मीन –
जो हमेशा हमारी ही रही,
मगर हमारे साथ के लिए,
रज़ा मंदी का इंतज़ार करती रही |
इंसान को हमेशा,
कद्र और फ़िक्र,
नाक़ाबिल – ए – रसाई तोर प्यार की ही होती है |
सूर्यास्त याद दिलाता है कि,
सुंदरता जीवित रहती है हर पल,
भिन्न भिन्न प्रकारों में,
अलग अलग तारीको से,
उजागर करते हुए भीतर,
हज़ारों ख्वाहिशें,
अनुभूति कराता है,
आनन्द के ये क्षण,
मगर अबोधि जीव,
रहते हैं हमेशा शंका में,
प्रत्यक्ष
और
अनुमान के |
सूर्यास्त : प्रकृति : खूबसूरती
जब पहुँची अपने गाँव, तब जाना अपने अस्तित्व को, बड़े ही क़रीब से | और बैठी हुई मैं, घर के इस आँगन में, सोचती रही कुछ यूँ |
ये आँगन टूटा फूटा सा,
और ये धरातल की दरारें, बयाँ करती हैँ दास्तान,
कुछ पुरानी यादों की, ग्लानि और अभाव से पूर्ण,
ये दीवारों के उतरता रंग,
एक व्याख्या प्रकट करते हैँ,
अधूरी ख्वाहिशें के, बिखरने की,
उलझे रिश्तों के, जकड़ने की,
कुछ खामोशियों की, कुछ सिसकियों की,
जो आज भी सुनाई देती हैँ,
ये ही आभा है, अतीत की, जो प्रत्यक्ष है, मगर समीप नहीं|
है नेत्र की सीमा से परे, मगर जाती हैँ, अंतर्मन के दायरे की ओर,
और छू जाती हैँ, उस सूक्ष्म कण को,
जो ओझल सा था, मगर असीम सा, अस्तित्व लिए हुए,
अतीत का, वर्तमान में, भविष्य तक |
ज़मीन : आँगन : अस्तित्व
जीवन की एक हक़ीक़त ऐसी भी |
दोपहर
अप्रैल की 40 डिग्री वाली गर्मी का था कुछ ऐसा नज़ारा,
दोपहर के 2 बजे वाली धूप में सुलगता था शहर सारा,
तपती काली सड़क के उजले उजले से वो किनारे,
मगर पगदण्डी पर बनते ना जाने कितने अँधेरे भरे नज़ारे,
कोई फटी बोरी पर करता है चीज़ों की नुमाइश,
कोई काठ के टुकड़ों पर रखता अपनी हर अधूरी ख़्वाहिश,
कोई पुरानी चादर का बिस्तर है सजाता,
कोई टीन के पट्टे को अपनी छत है बनाता,
कोई मैले पानी से रगढ़कर धोता यूँ टूटे फूटे से बर्तन,
कोई किफ़ायत से यूँ खाता गैरों की दी हुई झूटन,
कोई दुआ के बदले सिक्के माँगता,
कोई बार बार पगदण्डी का दायरा लाँघता,
कोई बारिकी से खंगालता कचरे का खज़ाना,
कोई गिरता पड़ता चिल्लाता ना जाने कौन सा अफसाना,
कोई यूँही बैठा रहता यूँही शुष्क निशब्द,
हर कोई नज़र आता जैसे हो अपनी किस्मत से बद्ध,
ना ही कोई बसेरा, ना ही कोई सहारा,
सड़क की इस पगदण्डी पर ही बीत जाता जीवन सारा |
जीवन : हक़ीक़त : धूप
कभी कभी ऐसा महसूस होता है की इबादत और दुआ में कुछ कमी रह गई, जो ये मोहब्बत नसीब ना हुई | फिर लगता है कि शायद मोहब्बत का मुक़ाम हर कोई पा सकता | खैर कोई बात नहीं, मुक़ाम ना सही, सफ़र तो तय कर ही सकते हैँ |
नूर की ख़्वाहिश किसे नहीं होती | हमें भी है – एक नज़्म इसी ख़्वाहिश के नाम |
उधर नूर उस मेहताब का,
छुपाता बदली का ये नक़ाब,
इधर दीदार की तलबगारी में,
रश्क़ करता ये मन,
नज़रों में ही बुन लेता ख़्वाब,
इसी चाह में,
कि मिल जाए कुछ राहत,
इस दिल-ए-बेकरारी को |
“कुछ सुकून तुम रख लो,
कुछ हमें बक्श दो, “
कहता हुआ ये मन,
दम भरता धीमें धीमें,
जब झिलमिल आँखें मूँद लेता,
तभी फ़िज़ा की एक शरारत,
मुकम्मल कर देती उस ख़्वाहिश को |
और,
उस माहेरु की एक झलक पाकर,
ये महदूद भी बेशुमार हो जाता |
©प्रदीप्ति
नूर: माहेरु: ख़्वाहिश