दर्शन, inspiration, philosophy

क्या?

क्या पँखुड़ी फूल से जुदा है?क्या कली को अपना कल पता है?क्या बहार पतझड़ से डरती है?क्या बंजर ज़मीन फूटने से कतरती है?क्या नदी ठहरना चाहती है?क्या सागर बहना को तरसता है?क्या आकाश सूर्य से रंग चुराता है?क्या सूर्य बादलों पे प्यार जताता है?क्या चाँद रोज़ बेनक़ाब होना चाहता है?क्या सूरज कुछ दिन विश्राम करना चाहता है?क्या हवा अपनी गति की मोहताज होती है?क्या बारिश की बूँदों में भी प्यास होती है?क्या रात को दिन से ईर्ष्या होती है?क्या शाम को अपने अस्तित्व की चिंता होती है?क्या फूलों को अपनी महक पे अभिमान होता है?क्या पर्वत को अपनी विशालता पे गर्व होता है?क्या सूखे फूलों को फिर से खिलने की इच्छा होता है?क्या टूटी लहरें फिर से उभरना चाहती हैं?क्या सुलगता लावा भी ठंडकता चाहता है?क्या बर्फ़ की चादर भी गर्माहट चाहती है?क्या कोयला हर बार हीरा बन पाता है?क्या टूटा कॉंच फिर से जुड़ पाता है?क्या दर्द को दवा की ज़रूरत होती है?क्या दुआ हर बार पुरी होती है?क्या ये उदासी इतनी ज़रूरी होती है?क्या ये ख़ुशी एक मजबूरी होती है?क्या ये अश्क़ कमज़ोरी होते हैं?क्या ये प्रेम यूँही सदैव रहता है?क्या एक दूजे से मिलना तय होता है?क्या ये रिश्ते अकेलेपन से कीमती हैं ?क्या ये अपने गैरों से क़रीब होते हैं?क्या पहचान अनजान होना चाहती है?क्या अनजान हमेशा के लिए जुड़ना चाहते हैं?क्या खोना जीवन का दस्तूर होता है?क्या पाना हमेशा स्वार्थ होता है?क्या है और क्या नहीं?क्यूँ है और क्यूँ नहीं?कब है और कब नहीं?इसका तो पता नहीं,मगर,ये सवाल यूँही उठते रहेंगे,कुछ का जवाब मिल जाएगा,कुछ यूँही रहस्य बनके रहेंगे |

क्या : रहस्य : सवाल

दर्शन, philosophy, poetry, Soulful

प्रियतम और भोजन

पत्थर की पटिया साफ़ पड़ी है,
बर्तन भी सारे धुल गए,
भोजन का वक़्त हो गया,
सबके आने का वक़्त हो गया,
चलो तैयारी करलूँ –
” चार मुट्ठी चावल निकाल लूँ,
और भिगाकर रख दो उन्हें,
तब तक ज़रा खेत से,
पालक के कुछ पत्ते तोड़ लूँ,
इमामदस्ते में कूट लूँ ज़रा,
खड़े मसाले सारे,
लाल मिर्च थोड़ी ज़्यादा डाल देती हूँ ,
इन्हें तीखा जो पसंद है,
लहसुन की दो डली काफ़ी है,
अरे! अदरक तो बाज़ार से लाना भूल गई,
चलो कोई बात नहीं,
अदरक का अचार मर्तबान में रखा है,
उसी को इस्तमाल करुँगी,
पालक को धोकर काट लेती हूँ,
हांडी में चावल चढ़ा देती हूँ,
तेल भी अब गरम हो गया,
जीरे लहसुन का तड़का लगा लूँ,
पालक भी अब भुन कर पक गया,
इनमें पके चावल मिला दूँ,
ढँक के दम देती हूँ इन्हें,
तब तक साड़ी की इन सिल्वटों,
और इन उलझी लटों को सुधार लूँ,
आईने में देखलूँ खुदको ज़रा,
कुमकुम सुरमा फिर से लगा लूँ,
एक हरी चूड़ी टूट गयी थी,
उलझकर खेत के काँटों में,
दूसरी चूड़ी पहन लेती हूँ |
शिखर के मंदिर की आरती अब समाप्त हुई,
फेरलीवाले भी अब वापस जाने लगे,
लगता है इनके आने का वक़्त हो चुका |
आँगन में बैठ जाती हूँ कुछ देर,
जूड़ा अधूरा सा लग रहा है,
जूही के इन फूलों का गजरा बना लूँ |
पालक भात की खुसबू के साथ,
गजरे की महक भी घर में फैला दूँ,
ये दिया जो चौखट पे जल रहा है,
तेल कम लग रहा है इसमें,
थोड़ा सा इसमें तेल डाल लूँ,
उफ़! ये बिखरे पत्ते नीम के,
इन्हें भी ज़रा साफ़ कर लूँ,
आते ही होंगे ये,
ज़रा आईने में खुदको फिर से निहार लूँ,
थाली लुटिया सब रख दी,
मुखवास की डिबिया भी,
बस इनकी राह देख़ रही हूँ,
आज इतनी देर क्यूँ हो गई?
बैठ जाती हूँ फिर से आँगन में,
पूनम के चाँदनी में धुला ये आँगन,
हल्की ठंडी पुर्वा का ये स्पर्श,
उफ़! कब आएँगे ये घर,
आज इतनी देर क्यूँ हो गई?”

विवाह : प्रेम : समर्पण

दर्शन, inspiration, philosophy

पटिया

©tulip_brook

पटिया पे सजाई बूँदें कुछ रंगों की,

सफ़ेद, पीला, नारंगी, लाल, गेरुआ,

बनाऊँगी इन रंगों से आज,

कोई चित्रा निराला,

भीगी तूलिका से,

भरूँगी इस पृष्ठभूमि को,

हल्के गेरूए रंग से,

खीचूँगी कुछ रेखाएँ सफ़ेद,

बनाऊँगी लौ परत दर परत,

हल्के पीले सरसों मैं जैसे,

मिलता हो यूँ हौले हौले,

उगते भानू का नारंगी रस,

दमकती हो जिससे आभा,

सुलगते उग्र यौवन के,

लाल लहू की,

शीतलता देता इन्हें,

माघ के चाँद की किरणें,

सफ़ेद धारियों वाली |

पटिया : रंग : जीवन

Soulful

सिन्दूर

Source : Aakash Veer Singh Photography

बेला मिलन की आ गई,

रुत सुहानी सी छा गई,

श्रृंगार करुँगी आज मैं,

मीत से मिलूँगी आज मैं,

रेन की गहरी काली स्याही से,

नैनों का काजल बनाऊँगी मैं,

सूर्यास्त की चमकती लालिमा से,

फीके होठों में रंग लाऊँगी मैं,

सावन के तृप्त पत्तों से,

हरी हरी चूड़ियाँ बनाऊँगी मैं,

आसमान में दमकते सितारों से,

ये ओढ़नी सजाऊँगी मैं,

गुलाब के मेहकते रस से,

इस देह को सुगन्धित बनाऊँगी मैं,

मोगरे की कच्ची कलियों से,

केशों का गजरा बनाऊँगी मैं,

मेहंदी के ताज़े पत्तों को,

इन हथेलियों को रचाऊँगी मैं,

चाँद के निरर्भ नूर से,

पैरों की पैनजनिया बनाऊँगी मैं,

जल की सुनहरी तरंग से,

नसीका का छल्ला बनाऊँगी मैं,

तपती कनक सी इस भूमि से,

कान के झुमके बनाऊँगी मैं,

काली घटा के सिरे की रोशनी से,

मांग का लशकारा बनाऊँगी मैं,

फिर बैठुँगी समक्ष इस अग्नि के,

प्रीत की लौ जलाऊँगी मैं |

मगर ये श्रृंगार अधूरा है,

इस पूर्ण कैसे बनाऊँगी मैं?

अब बारी है मीत की,

इस श्रृंगार पूर्ण बनाने की,

परिणय के प्रतिक को,

मेरी कोरी मांग में सजाने की |
ह्रदय के रक्त सा ये सिन्दूर,

जब भरेगा मीत इस मांग में,

हया से पलके झुकाऊँगी मैं |

फिर कहेगा ये मन तुमसे –

“जीकर इस कुमकुम भाग्य को,

तुम्हारी संगिनी कहलाऊँगी मैं |”

सिन्दूर : परिणय : संगिनी

दर्शन, inspiration, philosophy

प्रकृति का रंगमच

© tulip_brook

शाम का ये मलमली पर्दा,

बैंगनी गुलाबी रंग लिए,

धीरे धीरे हटने लगा है,

क्यूँकि वक़्त आ गया है,

रात के अद्भुत नाट्य का |

किरदार भी दिखने लगे अब,

कुछ धुँदले से,अधूरे से,

तैयार खड़े इंतज़ार में,

अपने अभिनय प्रदर्शन के लिए |

चाँद हया में छिपा हुआ है,

बदली की ओढ़नी लिए,

कुछ सितारे ओझल से हैं,

नज़र आएँगे कुछ देर बाद,

जब और गहरा होगा ये रंगमच,

और यूँही चलेगा रात भर,

रास इन चाँद सितारों का,

श्वेत श्याम के संगम का,

और

फिर से गिरेगा ये पर्दा,

भोर की मधुर बेला में,

वही बैंगनी गुलाबी रंग लिए |

रंगमच : पर्दा : प्रकृति

poetry, Soulful

प्रेम

जाओ पूछो उस पूनम के चाँद से,

कि कितनी तड़प थी,

 इस चाँदनी रात में,

तुझसे मिलने की |कतरा कतरा रोशनी भी,

चुभन मीठी सी देती है,

तेरा स्पर्श मेरे होठों पर,

और इस कोमल काया के,

 हर एक अंग पर, गहरी छाप छोड़ जाता है,

तूने इसे छुआ जो है,

प्रेम से |


वो निशा भी साक्षी है,

उन अर्द्ध गहरी स्वाशों की,

और नैनों की खोयी निद्रा की,

जो इंतज़ार में रहते हैं, 

तुझे छूने के लिए,

और समाना चाहते हैं खुदमें,

इस समय को यहीं रोक कर |

बस दो लफ्ज़ कहकर,

हम खामोश हो जाएँ,

महसूस करने के लिए,

 उन लफ़्ज़ों की ऊर्जा को,

और ध्वनि की ये आवृत्ति,

यूँही गूँजती रहे,

तुम्हारे और मेरे,

 रोम रोम में,

अनंत तक |


ये शीतल झील,

भी बयान कर रही है,

कि मिलन की आस में,

जब छुआ मैंने,

अपने उग्र तन से,

किस कदर ऊष्ण हुई,

नीर की एक एक बूँद,

और यूँही धुआ धुआ,

हुआ ये नीला गगन,

संध्या की बेला में,

लालिमा लिए,

सूर्य की नहीं,

 मेरे तेजस्वी प्रेम की,

जिसकी अग्नि जगमगा सकती है,

ब्रह्माण्ड के सैकड़ो आकाशों को,

इस काल चक्र के दायरे से परे |


क़ायनात का ज़र्रा जर्रा भी,

समाए हुए है,

इस प्रेम का अस्तित्व,

इस मिलन की लालसा,

इस इंतजार की पीड़ा,

और मेरे हर जज़्बात की छवि,

कि जब भी तू देखे,

चाहे इस असीम नभ को,

 या इस प्रगाढ़ अवनि को,

चाहे वर्षा ऋतु के वृक्षों को,

 या पतझड़ में बिखरे पत्तों को,

चाहे गहरे समुन्दर को,

या ऊँचे पर्वतों को,

चाहे बहती नदियों को,

या बरसती बौछारों को,

चाहे कच्चे रास्तों को,

या पक्की इमारतों को,

सब में पाए ,

 बस येही,

मेरे प्रेम को |

प्रेम : तुम : मैं

poetry, Soulful

महताब

ये इश्क़ भी महताब सा है,
जो इस अँधेरी ज़िन्दगी में,
अपने नूर से एक जगमगाहट तो ले आता है,
मगर जब इसे पाना चाहो,
तब हर बार छूटता सा चला जाता है,
जैसे कोई तिलस्मी छल हो,
जो पास होकर भी साथ नहीं होता,
बस एक दिलकश एहसास बन कर,
वजूद बना लेता है अपना,
इस दिल के दरमियाँ,
और ज़ख्म -ए -जिगर देकर,
अपने निशान छोड़ जाता है,
ताउम्र के लिए |

इश्क़ : महताब : ज़िन्दगी