
तारीकी का आलम था,
बसारत मुबहम हुई,
इक़तिज़ा थी वज़ाहत की,
इंतिज़ार तवील-उल-मुद्दत का,
अलबत्ता रजा की आग उठी,
गुफ़्तुगू हुई क़ायनात से,
और फ़िर ये नज़ारा दिखा –
ज़र्रा ज़र्रा तस्दीक़ करता मिला,
नूर – ए – कमर की इंतिहाई की,
रेज़ा रेज़ा फ़िर तमाम हुआ,
ये ख़ुद – सर सख्त – अँधेरा,
और रोशन हुआ ये ज़मीर फ़िर,
मुसलसल वक़्त के लिए |
प्रदीप्ति
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