inspiration, Soulful

नूर – ए – कमर

तारीकी का आलम था,

बसारत मुबहम हुई,

इक़तिज़ा थी वज़ाहत की,

इंतिज़ार तवील-उल-मुद्दत का,

अलबत्ता रजा की आग उठी,

गुफ़्तुगू हुई क़ायनात से,

और फ़िर ये नज़ारा दिखा –

ज़र्रा ज़र्रा तस्दीक़ करता मिला,

नूर – ए – कमर की इंतिहाई की,

रेज़ा रेज़ा फ़िर तमाम हुआ,

ये ख़ुद – सर सख्त – अँधेरा,

और रोशन हुआ ये ज़मीर फ़िर,

मुसलसल वक़्त के लिए |

प्रदीप्ति

तारीकी – darknessबसारत – wisdom/visionमुबहम – obscuredइक़तिज़ा – needवज़ाहत – clarityरजा – hopeतस्दीक़ – verifyनूर – ए – कमर – moonlightइंतिहाई – intensityख़ुद – सर – stubbornसख्त – अँधेरा – pitch darknessमुसलसल – continuity

inspiration

मिट्टी

गीली मिट्टी –

सही नमी,सही कण,

का आकार लिए,

घूर्णन की क्रिया से गुज़री,

एक निश्चित गति में,

हथेलियों का सहज संतुलन,

लगातार यूँ ही बनाकर,

सब्र और एकाग्रता के साथ,

भूमि की विशाल ओक तैयार की,

जिस्में जमाया हर कच्ची वस्तु को,

मिला सहारा भूमि का,

सहारा एक दूसरे के,

ताप की अग्नि से गुजरने के लिए,

कई घंटों तक यूँ ही |

कुछ इंतज़ार के झुलसते पल,

लाये एक सौगात नई-

अपना रंग बदलते हुए,

लालिमा निखार की,

ताप से निकले प्रचंड स्वरुप की,

बनने को तैयार,

घड़ा ठन्डे जल का,

कुल्हड़ गर्म चाय का,

तवा नर्म रोटी का,

कढ़ाई कड़क मसालों की,

हांडी में आने लगी,

मीठे चावल की महक,

थाल पर सजने लगी,

पकवानों की जोड़ी,

दाल, तरकारी,

रोटी, चावल,

घी, और गुड़,

अचार, पापड़,

चटनी,और छास,

मिसरी की डली,

पानी में घुली,

मिट्टी का स्वाद रमा,

भोजन के हर कण में,

और महक इस धरती की,

ज़िंदा रही हर निवाले में |

दर्शन, inspiration, philosophy

संगीत

संगीत

क्षण क्षण में संगीत,
कण कण में संगीत,
हर श्वास में संगीत,
हर आभास में संगीत |

सागर के ठहराव में,
नदी के बहाव में,
झरनों की हुंकार में,
वृष्टि की बौछार में,
नीर के हर रूप में,
हर बूँद में है संगीत |

मरुस्थल के अनुर्वर में,
घासस्थल के उर्वर में,
भूमि की हर माटी में,
चट्टानों में,घाटी में,
है संगीत |

बयार की अनवरत गति में,
बवंडर की क्षणिक यति में,
अनिल की हर रफ़्तार में,
है संगीत |

एक लौ के सौहार्द में,
एक ज्वाला के संताप में,
सूर्य में,
इंदु में,
अनन्त के अज्ञात सिरों में,
ब्रह्माण्ड के केंद्र बिन्दु में,
है संगीत |

प्रदीप्ति

philosophy, poetry

नीर

नीर समझकर हमें जिन्होंने,
सिर्फ़ एक अनुयायी के रूप में ही देखा,
और ये ही अपेक्षा करते रहे,
कि ये तो नीर है,
जैसा भी दायरे दोगे,
ये उस दायरे में समा जाएगा |
वो ये नहीं समझ पाए कभी,
कि समायोजन करके इसका,
अनुनेय व्यक्तित्व वाला नीर भी,
एक हद्द के बाद,
हर सीमा,
हर दायरे को पार कर,
सिर्फ़ एक ही काम करता है,
सैलाब लेकर आता है |

पटरा कर देना ज़माने का काम था,
हमने तो सिर्फ़ अपना जलवा दिखा दिया |

Musings, Soulful

Nature

Nature is never problematic.
It acts in its most harmonious way.
It takes its own course with time.
Its the humans who are problematic-
problem for each other,
problem for other creatures,
and
problem for nature too.
Hastiness, greed, and a sense of false pride makes humans the most problematic of all creatures existing on this planet.

NATURE : HUMANS : COEXISTENCE

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Love and Relationships

Roses n thorns (my garden)

We all have pricking thorns all over our soft fragrant selves.
Love is about removing those thorns one by one.
Getting hurt and bruised too in the process.
But trying to fill in the soft self with deep love, and care and healing it fully.
It doesn’t happen overnight.
It takes time,

patience and effort.
That’s where people lose the track-
Thinking thorns as the only reality, not the true soft fragrant self.

Even if you pick up those thorns, you will find the rarest essence of the soft self in it and you will take that pain as a reward of building a very strong love in time to come.
Only if you are willing to go that far and deep.
No love is all sweetness n

And softness.
It sharply tears you from within.
And shakes your inner core deeply,
Like a sky- shattering and blinding lightning thunder.
Unless you understand that deep pain,
You wont understand what true love is.

LOVE : FRAGRANCE : THORNS

दर्शन, inspiration, philosophy, poetry

वक़्त

वक़्त पानी सा बहता गया,
जीवन की नाव चलती गयी,
कई छोर छूटते गए,
किनारे भी धुंदले होते गए,
और अब ये मंज़र है,
कि गहराई रास आने लगी है,
अब ना किसी छोर की तमन्ना,
ना ही किसी किनारे की आस बची है |

inspiration, philosophy, poetry

समय

समय की गाड़ी चलती रही,
पलों के कई डब्बे लिए,
मुलाक़ातों के स्टेशन आते रहे,
सफ़र ये जीवन का,
यूँही बस चलता रहा |
अब गाड़ी तो चली गई,
डब्बो को अपने संग लिए,
स्टेशन भी अब छूट गए,
बस अब यादों की ये पथरियाँ बाकी हैं |

inspiration, poetry, Soulful

जीवंत

इस अंतारंग के संताप को,इस कदर घोला तुमने,अपने महासागर रुपी प्रेम में,जैसे घुलती हो ये जमी उंगलियाँ,इन ऊन के धागों से बुने दस्तानों में,जो सौम्य सा सौहार्द देते हैं,दिसंबर की ठिठुरती ठंड में |और यूँ बेपरवाह सी जीती हूँ मैं अब,ना सूरज के उगने की चिंता होती है,ना ही कलियों के खिलने की चाह |
अब तो आभास होता है,एक क्रान्ति सा परिवर्तन का,इस अंतर्मन में,जिसे सदियों से जकड़ रखा था,कई दानावों ने,जो कुचलते रहे सोच को,छीनते रहे शान्ति,औरमेरे काल्पनिक उल्लास को भी |आज,आखिरकर,मैं उन्मुक्त हूँ,निरंकुश और श्वसन,हाँ!आख़िरकार,मैं सही मायने में जीवंत हूँ |