उठा लेती हूँ उन्हें भी, बड़े ही स्नेह से, जिन्हें खुदके प्रियवर ने त्याग दिया, मालूम है मुझे ये सच्चाई, इस स्नेह से ये फिर घर नहीं जा पाएँगे, मगर कुछ क्षणों का कोमल स्पर्श, इन्हें सुकून ज़रूर देगा, नश्वरता को आलिंगन में लेने के लिए, स्वैच्छा से, मधुरता से, मिट्टी में विलीन होना भी आवश्यक है, इस काल चक्र के संचालन के लिए, फिर उजागर होने के लिए, किसी और रूप में, कोई और अस्तित्व लिए, मगर सिर्फ़ प्रेम से, जन्म से मरण तक, फिर जन्म लेने के लिए |
इस अंतारंग के संताप को,इस कदर घोला तुमने,अपने महासागर रुपी प्रेम में,जैसे घुलती हो ये जमी उंगलियाँ,इन ऊन के धागों से बुने दस्तानों में,जो सौम्य सा सौहार्द देते हैं,दिसंबर की ठिठुरती ठंड में |और यूँ बेपरवाह सी जीती हूँ मैं अब,ना सूरज के उगने की चिंता होती है,ना ही कलियों के खिलने की चाह | अब तो आभास होता है,एक क्रान्ति सा परिवर्तन का,इस अंतर्मन में,जिसे सदियों से जकड़ रखा था,कई दानावों ने,जो कुचलते रहे सोच को,छीनते रहे शान्ति,औरमेरे काल्पनिक उल्लास को भी |आज,आखिरकर,मैं उन्मुक्त हूँ,निरंकुश और श्वसन,हाँ!आख़िरकार,मैं सही मायने में जीवंत हूँ |
वक़्त, एक कलम की तरह, ज़िन्दगी की तख़्ता-ए-स्याही पर, लिखता है हिब-ए-मरासिम के फ़साने, लेकिन, कुछ आसान सा नहीं नज़र आता, इस कलम का इज़हार-ए-इश्क़, और ये जज़्बातों की लकीरें, कुछ सिमटी सी नज़र आती हैं, क्योंकि रुख बदल देती उनका, ये नबीना असूलों की हवा, और तब्दील कर देती हैं, हयात इस पाक इश्क़ की, बस, यूँही देखते देखते, कुछ अधूरे टूटे लफ़्ज़ बाकी रह जाते हैं, और ओंझल हो जाती है वो हसीन दास्ताँ | लेकिन झिलमिल आँखों की बूँदों से, बयाँ कर ही जाती हैं, वो दर्द-ए-दिल की कसक को भी, जिसे तख़्ता-ए-स्याही पे कभी ना लिख पाए |
सतह सुर्ख है,तृष्णा गहरी है,प्रेम का असीम समंदर है अन्दर,फिर भी ना जाने कैसी अजब कमी सी है |उठता है तूफ़ान इस कदर,हर पल फूटना चाहता हो जैसे,मगर ये अश्क़ बहते भी नहीं,दो बूँद नैनों में झलकती भी नहीं,जबकि श्वासों से लेकर देह तक इतनी नमी सी है |क्यूँ फैला है अनन्त तक,ये खालीपन ?ना अँधेरा है ना ही रोशनी,ना नज़र आता ऊपर ये आसमान,और ना ही महसूस होती नीचे कोई ज़मीन सी है |कुछ रुका भी नहीं,कुछ बहा भी नहीं,कुछ दिखा भी नहीं,कुछ छुपा भी नहीं,कोई आरज़ू भी नहीं,कोई शिकायत भी नहीं,ना ही बेबसी है,ना ही बेचैनी है,ना जाने कैसी रहस्यमयी एहसास है ये,कभी ना तृप्त होने वाली वीमोही प्यास है ये |
शान्त है श्वास, धड़कन स्थिर है, ये निर्जीव स्तिथि नहीं, स्तब्ध अस्तित्व है | प्रेम के सौहर्द ताप की, ये अग्नि अवग्य होकर, जब कोप की ज्वाला बनी, तब नष्ट हुआ, ह्रदय का भार, समय और भावनाओं से बना, जो कभी सुकून था, वो आज बोझ है, जो पहले स्वतंत्र था, आज जकड़ा हुआ है | और फिर चूर चूर हुआ सब, कतरा कतरा इस कदर बिखरा, सिसकियों और अश्कों के, तूफ़ान और समंदर की तरह | शान्त हुई ज्वाला अब, बहता गया अतीत यूँ, और हर बूँद चुभती हुई, किसी शूल की तरह, छोड़कर गहरे घाव, और यूँ रह गई फिर – शान्त ये श्वास, धड़कन ये स्थिर, ये निर्जीव स्तिथि नहीं, स्तब्ध अस्तित्व है |
मुझे मोती की माला की चाह नहीं, तू लहरों के चूमे हुए, रेत में लिपटे हुए, कुछ कोरे सीपी ले आना, उन्हें पिरोकर एक हार बना लूँगी | मुझे सोने के कंगन नहीं लुभाते कभी, तू शहर के पुराने बाज़ार से, कॉंच की रंग बिरंगी चूड़ियाँ ले आना | मुझे रेशमी साड़ी नहीं पहननी, तू सतरंगी सूती साड़ी ले आना | मुझे चाँदी की पायल नहीं छनकनी, तू दरगाह से मन्नत का धागा ले आना | मुझे पकवान मिठाई नहीं खाने, तू सड़क किनारे इन झाड़ियों से तोड़कर एक टोकरी मीठे पके बेर ले आना | मुझे काँसे के बर्तन नहीं खरीदने, तू पड़ोस के कुम्हार से, मिट्टी के कुछ बर्तन ले आना | मुझे मेहेंगे इत्तर नहीं छिड़कने, तू इस आँगन में मेहकते हुए, मोगरा रजनीगंधा के पेड़ लगाना, भोर की बेला में, कुछ कलियाँ तोड़कर, इन केशों को सजा देना | मुझे इस घर को, कीमती चीज़ों से नहीं सजाना, तू दशहरे के मेले से, लकड़ी की छोटी बड़ी आकृति ले आना | मुझे कहीँ सैर पे दूर मत ले जाना, पूनम की चाँदनी रात में, झील में नौका विहार करा लाना, सावन में छतरी ना सही, शाम को बारिश में भीगते हुए, निम्बू मिर्ची रचा हुआ, कोयले पे सिका हुआ, भुट्टा खिला आना, मई की सुलगती गर्मी में, गली में घूमते हुए, उस बूढ़े फेरीवाले से, बर्फ़ का गोला दिला देना, दिसंबर की ठिठुरती ठंड में, पुराने किले के बाहर बैठे, उस छोटे से तपरीवाले से, एक प्याला मसाला चाय पीला लाना | मुझे मोटर गाड़ी में नहीं बैठना, तू साइकल में बैठाकर, मुझे खेत खलियान की सैर कराना | मुझे गद्देदार शय्या में नहीं सोना, खुली छत पर चटाई बिछाकर, सितारों भरी रात में, पूर्वय्या के मंद स्पर्श के साथ, सुकून की नीन्द सुला देना | बस यूँही उम्र भर साथ रहकर, हर पल को ख़ुशनुमा, और यादगार बना देना |
The dark existence, And its stark persistence, The obnoxious energy, And its hollow synergy, The scathing vice, And its perturbing caprice, The impinging attack, And its stinging flak, The cunning thought, And its smelly rot, The evil intention, And its pertinent tension, The sly comments, And their unpalatable condiments, The foxy acts, And their illusionary facts, The sucking compulsions, And their draining repulsions, The erratic statements, And their puzzled placements, The gloomy narratives And their dimming imperatives, The deliberate scorn, And its prickly thorn, The noisy tirade, And its defeaning charade, The unrealistic expectations, And their disappointing manifestations, The paltry assistance And its pompous subsistence. Even within all this, The light still shines, And the fragrance still spreads, The vibrance still stays, And the exuberance still sprouts. Even in this barrenness, In this parched and deficient terrain, Devoid of warmth and love, Filled with weeds of hatred and ego, The scantiness of inspiration, And the emptiness of positivity, The goodness still thrives, The beauty still lives.
पत्थर की पटिया साफ़ पड़ी है, बर्तन भी सारे धुल गए, भोजन का वक़्त हो गया, सबके आने का वक़्त हो गया, चलो तैयारी करलूँ – ” चार मुट्ठी चावल निकाल लूँ, और भिगाकर रख दो उन्हें, तब तक ज़रा खेत से, पालक के कुछ पत्ते तोड़ लूँ, इमामदस्ते में कूट लूँ ज़रा, खड़े मसाले सारे, लाल मिर्च थोड़ी ज़्यादा डाल देती हूँ , इन्हें तीखा जो पसंद है, लहसुन की दो डली काफ़ी है, अरे! अदरक तो बाज़ार से लाना भूल गई, चलो कोई बात नहीं, अदरक का अचार मर्तबान में रखा है, उसी को इस्तमाल करुँगी, पालक को धोकर काट लेती हूँ, हांडी में चावल चढ़ा देती हूँ, तेल भी अब गरम हो गया, जीरे लहसुन का तड़का लगा लूँ, पालक भी अब भुन कर पक गया, इनमें पके चावल मिला दूँ, ढँक के दम देती हूँ इन्हें, तब तक साड़ी की इन सिल्वटों, और इन उलझी लटों को सुधार लूँ, आईने में देखलूँ खुदको ज़रा, कुमकुम सुरमा फिर से लगा लूँ, एक हरी चूड़ी टूट गयी थी, उलझकर खेत के काँटों में, दूसरी चूड़ी पहन लेती हूँ | शिखर के मंदिर की आरती अब समाप्त हुई, फेरलीवाले भी अब वापस जाने लगे, लगता है इनके आने का वक़्त हो चुका | आँगन में बैठ जाती हूँ कुछ देर, जूड़ा अधूरा सा लग रहा है, जूही के इन फूलों का गजरा बना लूँ | पालक भात की खुसबू के साथ, गजरे की महक भी घर में फैला दूँ, ये दिया जो चौखट पे जल रहा है, तेल कम लग रहा है इसमें, थोड़ा सा इसमें तेल डाल लूँ, उफ़! ये बिखरे पत्ते नीम के, इन्हें भी ज़रा साफ़ कर लूँ, आते ही होंगे ये, ज़रा आईने में खुदको फिर से निहार लूँ, थाली लुटिया सब रख दी, मुखवास की डिबिया भी, बस इनकी राह देख़ रही हूँ, आज इतनी देर क्यूँ हो गई? बैठ जाती हूँ फिर से आँगन में, पूनम के चाँदनी में धुला ये आँगन, हल्की ठंडी पुर्वा का ये स्पर्श, उफ़! कब आएँगे ये घर, आज इतनी देर क्यूँ हो गई?”