दर्शन, philosophy, poetry

चौखट के किस्से

भोर की साफ़ सफाई,

चिड़िया को दाना देना,

अल्पना के आकार बनाना,

सूप से धान का छिलका निकालना,

दही को हांडी में बिलोना,

पैरों पर आलता लगाना,

केशों का गजरा बनाना,

दोपहर को सहेलियों से बातें,

सुसताती औरतें घर के काम के बाद,

शाम की चाय और फेरीवाला बाज़ार,

दोनों का आनंद उठाते पुरुष,

ऐनक और पुस्तक लिए बुज़ुर्ग,

हल्ला करते बच्चे,

मंदिर की घंटी की आवाज़,

और रजनी का अखंड दीप,

ना जाने कितने ही ऐसे काम,

होते रहते हैं सुबह शाम,

इसी चौखट पर,

जो बन जाते हैं एक अरसे बाद,

इस चौखट के किस्से |

प्रदीप्ति

दर्शन, philosophy, poetry, Spiritual

भौतिकता के बदलते आयाम

आकार मिलता है,

विस्तृत सृजन से,

अस्तित्व बनता है,

सहज प्रयोजन से |

अनिर्मित रूप में,

अदृष्ट होता है,

उपयोगी वस्तु का,

याथार्थ आकृति,

ये ही सटीक प्रमाण है,

प्रकृति की परिवर्तनशीलता का |

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मिट्टी की दिव्यता

मिट्टी की दिव्यता

कण कण बिखरा धरा पर,

हल्का गेरू, गहरा लाल रंग लिए,

क्या मोल है इस कण का –

इसके भार का,

रंग का,

रूप का?

क्या कीमत लगेगी इसकी,

व्यापार में,

बाज़ार में?

कौन बेचेगा,

कौन खरीदेगा,

इसको इस संसार में?

कहीं इमारत निर्माण में,

कहीं काँच के उत्पाद में,

इस्तिमाल हुआ इस मिट्टी का |

कहीं खुदा कुआँ,

या कोई खदान,

निकली उसमें से,

मिट्टी अपार,

बना ऊँचा टीला मिट्टी का,

उस मिट्टी को ले आया कुम्हार,

या कोई मूर्ति शिल्पी,

दोनों ने दिया उसे आकार,

जल की नमी से,

अग्नि की उष्णा से,

और बनाई आकृति दिव्यता की |

अब भी वही प्रश्न रहा,

वही अधूरी पहेली,

क्या मोल है अब इस मिट्टी का,

दिव्यता के इस रूप का?

किस बाज़ार में मिलेगा,

इसका सही दाम,

क्या बिकती है दिव्यता,

सिर्फ़ मिट्टी के ही

दाम?

प्रदीप्ति

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दर्शन, inspiration, philosophy

इमारत

इतिहास की झलक दिखती है,
इस इमारत में –
दीवारों की टेड़ी मेढ़ी दरारों में,
कोनों में जमी हरी काली काई में,
पत्थरों की टूटी फूटी पगडंडियों में,
छतों की छिलती गिरती परतों में,
झिल्लीदार निस्तेज इन कमरों में,
बिन शीशे पल्लो की खिड़कियों में,
ईमारत के हर भाग, हर हिस्से में,
हर दिशा में खुलते इन रोशनदानों में,
इसकी दशकों पुरानी नींव में,
इमारत के सम्पूर्ण अस्तित्व में |

प्रदीप्ति

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दर्शन

प्रतिबिम्ब गाण

आज –

नभ का ये नील राग,

चन्द्रमा की ये श्वेत तरंग,

पत्तों के ये हरित स्वर,

और

पूर्वइया की ये रंगहीन लय,

मिलकर बनाते हैं -बंदिश नई |

जिसका प्रतिबिम्ब नज़र आता है,

इस निश्छल गोल दर्पण में |

जिसके समावेश में,

बाध्य हो जाता है,

इस नील राग का अस्तित्व,

और बन जाता है,

एक अनूठा गाण,

श्रावण की पूर्णिमा का |

प्रदीप्ति

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दर्शन, inspiration, philosophy

मौन

ये व्यापक मौन,
क्षितिज समुद्र का,
जिसकी सतह पर,
ये ध्वनि लहर सी,
तरंगे बनाती है |
मगर फिर भी ये,
नज़र आता हमेशा,
ठहरा हुआ सा |
कैसी विडंबना है ये,
मानो जैसे –
गति और निस्तब्धता,
दोनों संग – संग हो |
मौन का आकार,
नहीं माप सकता,
कोई सिरा इसका,
नहीं भाँप सकता |
ध्वनि की आकृति,
कोई रेखाचित्र पर रचा,
सीधी, वक्र और अनेक बिन्दुओ से बना,
दृष्टिकोण में समाया,
एक भौतिक रूप लिए,
समय के दायरे से बँधा हुआ |
और ये मौन,
अनुभूति के सूक्ष्म आभास में,
स्थूल सीमाओं को,
धुंधला करता हुआ,
अनंत का अभिन्न भाग,
बनने के लिए,
कालचक्र से परे,
अनंत बनने के लिए |

प्रदीप्ति

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दर्शन, philosophy

गुरु पूर्णिमा

ये मायारुपी नभ,

है असीम अंधकार,

अविद्या का,

विष सा फैला हुआ,

मानव चित्त पर,

स्वापक भाव को तीव्र,

जिसमें रहकर करता है वो,

तामसिक आनंद का अनुभव,

और यूँही सदा रहता है,

इस तिमिर भोग की ललक में,

एक आवेगी उन्माद सा लिए |

इसे रोशन कर रहा है आज,

ये धवल अमृतांशु,

हर किरण जिसकी मिटा रही है,

चित्त से इस अँधेरे को,

परत दर परत चमक रही है,

और भर रही है ज्ञान के,

इस प्रबल प्रकाश को,

चित्त की हर वृत्ति में,

संतुलित करते हुए हर भाव को,

सात्विकता की ओर,

एक परम गुरु की तरह,

बड़ी ही सहजता से |

प्रदीप्ति

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philosophy, poetry

उत्पल

उत्पल काया प्रकट हुई,
जब हुआ प्रेम मिलाप,
जल का माटी से |
जब –
बूँद बूँद ठहरी हुई,
घुलती गई कण कण में|
जब –
माटी के एक आकार का,
जल के एक आकार से,
हुआ ये अद्भुत संयोजन |

जब –
मिली सही मात्रा,
ठहराव की,
(बूँद के)
आकार की,
(माटी के)
नमी की,
(दोनों के मिलन के)
समय की,
(प्रकृति के) |

तब –
हुआ उत्पन्न,
नूतन जीवन एक |

जब –
खिली एक कली,
बूँद का आकार लिए,
और
माटी का ठहराव,
नमी प्रेम मिलाप की,
और
गुलाबी निखार समय का,
हर पंखुड़ी में |

प्रदीप्ति

tulipbrook #lotus #प्रकृति

Soulful

स्वर्णिम स्मृति

स्वर्णिम स्मृति

शहद चाशनी सा ये एहसास,

सूर्य की किरणों का देह पर ये स्पर्श,

उजागर करता है वेग,

प्रेम रस राग सा,

जिसमें है-

चमक भी,

दमक भी,

महक भी,

चहक भी |

इस वेग के रूप में,

राग के लय में,

नज़र आती है-

चमक मुख की,

दमक लोचन की,

महक मन की,

चहक रूह की |

और ये आभास होता है स्वयं को,

जहाँ दोहराती है चेतना की वाणी,

वेग के हर स्वर को,

प्रकाशित भी,

तिरोहित भी,

जैसे क्रीड़ा हो वात्सल्य पूर्ण,

रौशनी और तिमिर की,

या प्रतिस्पर्धा कोई,

ध्वनि और मौन की,

जो –

क्षण क्षण से लेकर,

अनंत तक,

अस्तित्व के अंश से लेकर,

व्यक्तित्व के समभाग तक,

हर स्तर पर रमणीय बनाती है,

इस स्वर्णिम स्मृति को |

प्रदीप्ति

#tulipbrook #स्वर्णिम #जज़्बात

philosophy

निशान

ना जैसे कैसे

मिट जाता है हर निशान,

जबकिरेत पर नमी टिकती नहीं |

हम उन्हेंना लहरों पर ढूंढ सकते हैं,

ना रेत पर खोज सकते हैं,

बस रह जाता है अस्तित्व उनका,

मन और हृदय के कोषों में,

कुछ स्मृतियों में,

कुछ जज़्बातों में |

प्रदीप्ति

#zindagi #lifelessons